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बाल दिवस पर विशेषः बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम

virendra kumar dewangan 30 Mar 2023 आलेख बाल-साहित्य Child 85701 0 Hindi :: हिंदी

 सरकारें बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम चलाया करती हैं। इसका ध्येय शिशु मुत्युदर में कमी लाना है। आंकड़े कहते हैं कि इस कार्यक्रम से 2005 में जहां शिशु मृत्युदर प्रति एक हजार पर 58 थी, वहीं 2014 में यह घटकर 39 रह गई। 2017 में यह आंकड़ा 33 पर पहुंच गई। 
इस योजना में शिशुओं के स्वास्थ्य के लिए विशेष इकाइयां बनाई गई हैं। ऊपर से शिशु स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करानेवालों की क्षमताओं को बढ़ाया गया है, जिसमें टीकाकरण प्रमुख कार्यक्रम हैं।
	आशय यह कि इधर सरकारें शिशु मृत्यु दर में कमी लाने के लिए तमाम योजनाएं संचालित कर रही हैं, उधर मासूमों की मौतें भयावह सच बयां कर रही हैं। आखिर इन स्वास्थ्य सेवाओं व कार्यक्रमों का फायदा अबोध बच्चों की जान-निसारी के लिए क्यों नहीं मिल रहा है?
	विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानव विकास सूचकांक रिपोर्ट 2018 के अनुसार 189 देशों की सूची में भारत का 130 स्थान है। मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया के मुताबिक, देश में पंजीकृत डाक्टरो की संख्या 10.41 लाख है। 
भारत अपने कुल बजट का 2.2 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं में खर्च करता है। वहीं देश में 10,189 व्यक्तियों पर एक सरकारी डाक्टर है। जबकि डाक्टरों की वैश्विक औसत संख्या प्रति लाख आबादी पर 154 है। इस लिहाज से भारत में 6 लाख डाक्टरों की कमी है। इतना ही नहीं, देश में 20 लाख नर्सिंगकर्मियों का अभाव है।
	क्या कोई सरकार चिकित्सकों व नर्सिंग स्टाफ की पदपूर्ति की कोशिशें संजीदगी से करती है? जवाब है। हरगिज नहीं। यदि करती, तो इतनी कमी नहीं रहती। डाक्टरों व सहायकों का टोटा नहीं पड़ा रहता। हर जिला या सिविल अस्पताल में चिकित्सकों व सहायकों के दर्जनों पद खाली पड़े नहीं रहते?
	ऐसे में दूरदराज के गांवों में खोले गए मिनी और प्राथमिक चिकित्सालयों का तो भगवान ही मालिक है। ऐसे अस्पतालों में कहीं वार्ड ब्वाय के दम पर अस्पताल चल रहा है, तो कहीं एक अदद नर्स के दम पर। ऐसे अस्पतालों से बच्चे गंभीर हालत में बड़े अस्पतालों में रेफर नहीं किए जाएंगे, तो कहां किए जाएंगे? बच्चों की दैनंदिन मौतों की भी यह एक बड़ी वजह है।
	सरकारी अस्पतालों में उपकरणों की या तो कमी है या वे रखरखाव के अभाव में धूल खा रही है। कबाड़ में पड़े हुए हैं। बहुतेरे अस्पतालों में तो कुत्ते और सुअर चहलकदमी करते रहते हैं। ऐसे बदहाल, संसाधनहीन और सुविधाविहीन अस्पतालों में कैसा इलाज होता होगा? सोचनेवाली बात है।
जिस तरह शिक्षक के बिना स्कूल का कोई वजूद नहीं होता, उसी तरह चिकित्सक के बिना चिकित्सा संस्थानों का कोई अस्तित्व नहीं होता। इनके बिना बदइंतजामी हो सकती है, उचित चिकित्सा व शिक्षा नहीं।
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अनुरोध है कि लेखक के द्वारा वृहद पाकेट नावेल ‘पंचायतः एक प्राथमिक पाठशाला’ लिखा जा रहा है, जिसको गूगल क्रोम, प्ले स्टोर के माध्यम से writer.pocketnovel.com पर  ‘‘पंचायत, veerendra kumar  dewangan से सर्च कर और पाकेट नावेल के चेप्टरों को प्रतिदिन पढ़कर उपन्यास का आनंद उठाया जा सकता है तथा लाईक, कमेंट व शेयर किया जा सकता है। आपकी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी।
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