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गुदड़ी के धागे-मूल से सिरा जाता दूर बदलते जाते सरूर लूर

Santosh kumar koli 13 Aug 2023 कविताएँ समाजिक गुदड़ी के धागे 5049 0 Other :: Other

मूल से सिरा,
जाता दूर।
बदलते जाते,
सरूर, लूर।
ज्यों- ज्यों घटता,
लगाव नूर।
साथ रहने, दिखने,
को मजबूर।
ज्यों-ज्यों बढ़ता,
बढ़ती आंट।
अपने छोड़ ग़ैरों से,
सांठगांठ।
लाग- लगाव में,
काट -छांट।
दूर दिखते अंगूर,
निकलती आंट-सांट।
आपसी खींचतान में,
जाते हैं टूट।
अपने अपनों से,
जाते हैं छूट।
कभी टूटे दिखते,
कभी दिखावा झूठ-मूठ।
जुड़ने पर भी भग्नप्रायः,
छिछहुंड में रिस व रूठ।
कुछ तागे ताने- बाने की,
अट जाते अटक।
मूल से सिरा,
जाता भटक।
मूल ही कूल है
धूल में क्यों रहा पटक।
अटक, भटक बिना तीर,
मझधार में जाता लटक।

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