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उर की उद्विग्नता- स्मृतियाँ मात्र

Preksha Tripathi 12 Oct 2023 कविताएँ दुःखद 13660 0 Hindi :: हिंदी

थे एक तपस्वी ऐसे वो
जो आज धरा पर नहीं रहे। 
कर दिया समर्पण् जीवन सब
और भ्रातृ प्रेम में रमे रहे।।
जिस माँ की गोद में खेले थे
उस माँ के लोक में चले गए। 
सूना कर घर द्वार हमारा
हमें शून्य कर चले गए।। 
थे लखन सदृश इस धरती पर
जो अपने राम को छोड़ चले। 
बाँधा था जिस डोर से हमको
उसी डोर को तोड़ चले।। 
न किया कभी अभिमान स्वयं पर
न अपना कहीं जताते थे। 
था बड़ा गर्व भाई पर अपने
हर क्षण उनकी बात बताते थे।। 
करते थे हास, हँसाते भी थे
पर वो आज रुला कर चले गए। 
आये थे इस धरती पर
और लीलाएं कर के चले गए। 
जाने किस लोक से आये थे
जाने किस लोक को चले गए
थे एक तपस्वी ऐसे वो
जो आज धरा पर नहीं रहे।। 

प्रेक्षा त्रिपाठी परम

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