Chanchal chauhan 09 Feb 2024 कहानियाँ धार्मिक कृष्ण और उद्धव का संवाद सबसे ऊंची प्रेम सदा ही कृष्ण को सदा ब्रज प्रेम 5640 0 Hindi :: हिंदी
"प्रेम की बात सिर्फ एक प्रेमी ही जान सकता है। प्रेम शब्दों की बात नहीं यह एक शब्द हीन भाव है जो इसमें डूबता है सिर्फ वही ही जानता है। इस प्रेमभाव के लिये ईश्वर पृथ्वी पर जन्म लेने के लिये लालायित रहते है।" माँ ने मुझे समझाया। "फिर माँ " उत्साहित हो मैंने पूछा। माँ ने कहानी कहना शुरू किया मथुराधीश श्रीकृष्ण ने भोजन नहीं किया। संध्या होते ही महल की अटारी (झरोखे) पर बैठकर गोकुल का स्मरण करते हैं। वृन्दावन की ओर टकटकी लगाकर प्रेमाश्रु बहा रहे हैं। कन्हैया के प्रिय सखा उद्धवजी से रहा नहीं गया। उन्होंने कन्हैया से कहा–’मैंने आपको मथुरा में कभी आनन्दित होते नहीं देखा। मैं अपने हरसम्भव प्रयास से आपकी सेवा करता हूँ। दास-दासियां हैं। आप मथुराधीश हैं। आप राजा है। सभी आपका सम्मान करते हैं, आपको वन्दन करते हैं। छप्पन प्रकार के भोग समर्पित करते हैं, फिर भी आप भोजन ग्रहण नहीं करते। आप दु:खी व उदास रहते हैं। आपका यह दु:ख मुझसे देखा नहीं जाता। श्रीकृष्ण ने कहा–’उद्धव मैं दु:खी हूँ क्योंकि मैं वृन्दावन की उस प्रेमभूमि को छोड़कर आया हूँ, जहां मेरा हृदय बसता है। मथुरा में सब मुझे मथुरानाथ तो कहते हैं पर ‘लाला’, ‘नीलमणि’, ‘कनुआ’, ‘कन्हैया’ कहकर प्रेम से गोद में कोई नहीं बिठाता। मथुरा में सभी मुझे वन्दन करते हैं, सम्मान देते हैं, पर कोई मेरे साथ बात नहीं करता, तुम्हारे सिवाय यह पूछने वाला कोई नहीं है कि मैं दु:खी क्यों हूँ ? ‘गोकुल छोड़ मथुरा आने पर मेरा खाना छूट गया है। मथुरा में मेरे लिए छप्पन-भोग तो बनता है पर दरवाजा बन्द कर कहते हैं–भोजन अरोगिए। मैं ऐसे नहीं खाता। मुझे कोई प्रेम से न मनाये, मनुहार न करे तब तक मैं खाता नहीं हूँ। हजार बार मनुहार करने पर मैं एक ग्रास खाता हूँ। व्रज में मां यशोदा मुझे हजार बार मनाती और तब खिलाती थी। मां यशोदा का प्रेम मुझे मथुरा में मिलता नहीं। मैं न खाऊं तब तक मेरी मां खाती नहीं। मथुरा में मैं छप्पन-भोग केवल निहारता हूँ, खाता नहीं हूँ यह कृष्ण भोग का नहीं, प्रेम का भूखा है। इसीलिए मैं दु:खी रहता हूँ। मुझसे बृज भूलता नहीं और ना ही मैं अपने उस भगत प्रेमी को भूलता हूं जो मेरी ब्रज और वृंदावन की वंदना करता है। मैं उनसे खुश रहता हूं उद्धव। क्योंकि मेरा हृदय ही वही है उद्धव और क्यों ना हो वहाँ सिर्फ़ प्रेम ही प्रेम है। सबसे ऊँची प्रेम सदा ही दुर्योधन की मेवा त्यागी, साग विदुर घर पाई जूठे फल सबरी के खाये , बहुबिधि प्रेम लगाई प्रेम के बस नृप सेवा कीनी , आप बने हरि नाई राजसुयज्ञ युधिष्ठिर कीनो, तामैं जूठ उठाई प्रेम के बस अर्जुन-रथ हाँक्यो , भूल गए ठकुराई ऐसी प्रीत बढ़ी बृन्दाबन, गोपिन नाच नचाई सबसे ऊँची प्रेम सदा ही।