मै दूर तो तुमसे रह सकता हूँ
पर तुझको नहीं भुला सकता
जब भी मैं तुझसे रूठा होता
तुम मेरे आफ़िस थी आ जाती
पा करके दीदार तुम्हारा
मेरी गुस्सा कम हो जाती
तुमसे मिलने की खातिर
मुझे बहाना करना पड़ता
बाॅस समझ जाते थे सब पर
मुझको झूठ बोलना पड़ता
गंज की उन मुलाक़ातो को
मैं कैसे भला भुला सकता
मै दूर तो तुमसे…..
जिस दिन मेरी छुट्टी होती
उस दिन तुमसे मिलना होता
तेरी एक झलक देखने को
दिल मेरा कितना भावुक होता
मंगलवार के आने तक मैं
प्यास जागाकर रखता था
अधरों का स्पर्श मिलेगा
मैं आस लगाकर रखता था
अधरों पर उस चुम्बन का
प्रतिबिम्ब मैं नहीं मिटा सकता
मैं दूर तो तुझसे रह…….
क्या तुम्हे याद है उस दिन जब
हम साथ तुम्हारे टैक्सी में बैठे थे
मेरे कंधे पर सर रखा था तेरा
उस दिन हम तुमसे रूठे थे
प्रेम का स्पर्श देकर तुमने
मुझको मना लिया था
तुमने गले से लगकर
दूरी को तुमने मिटा दिया था
अपने कंधे से तेरे सर का
वो भार मै मिटा नहीं सकता….
फ़िर जो तुमने विरह दीप जलाया
कैसे उसे कोई बुझा सकता था
अपना टूटा दिल लेकर करके
हर बार मै कैसे आ सकता था
क्या हुआ अगर तुम बदल गये
मैं तन्हा जीना सीख गया हूँ
तेरी वैसी ही सीरत को मैं
कविता में लिखना सीख गया हूँ
जो कविता में भी तुमको जीता है
फ़िर कैसे तेरी कब्र बना सकता…
मैं दूर तो तुमसे रह सकता हूँ
पर तुझको नहीं भुला सकता…..