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लघुकथा- बख्सीस

virendra kumar dewangan 30 Mar 2023 कहानियाँ समाजिक Short Story 33275 0 Hindi :: हिंदी

लघुकथा-
                  बख्सीस 
	रामप्रसाद रेल्वे कुली था। वह कुलीगीरी से जितना कमाता था, रोजाना खाने-पीने और बच्चों की पढ़ाई-लिखाई में खर्च कर दिया करता था। 
दुष्ट कारोना ने उसे ऐसा लपेटा कि वह इक्कीस दिन बिस्तर से उठ-बैठ न सका। 
वह सरकारी अस्पताल में इलाज करवाकर जब चलने-फिरने लायक हुआ, तब बाइसवें दिन रेल्वे स्टेशन पहुंचकर अपने काम में जुट गया। 
एक महिला ग्राहक का सामान ज्यादा देखा, तो उसके पास जाकर पूछा, ‘‘मैडम, कुली चाहिए?’’
	संभ्रांत महिला कुली की तलाश में ही नजरें इधर-उधर दौड़ा रही थी। 
झट बोली, ‘‘हां चाहिए। बाहर गेेट तक जाना है। कितना लोगे?’’
	‘‘तीस रुपया’’ रामदीन बड़े बैग को हाथ से उठाया ओर अंदाजन तौलकर बोला।
	‘‘क्या...या...या! पहली बार यहां आई है समझ लिया क्या?’’ महिला अजीब मुंह बनाई, ‘‘हर बार बीस देती हंूं। इस बार भी वही दूंगी। ले जाना है, ले जा। वरना दफा हो जा!’’
	‘‘आपका कहना सही है मैडम। प्लेटफार्म से गेट तक सामान ले जाने का रेट बीस रुपया ही है। लेकिन, मैं बीते इक्कीस दिन से बीमार थां। कोई कामधाम नहीं कर रहा था। इसकी भरपाई के लिए हर ग्राहक से निवेदन कर रहा हूं और दस रुपया बख्शीश के रूप में अतिरिक्त राशि दे दें। अधिकांश दयालु ग्राहक बख्सीस दे भी रहे हैं। आपसे भी यही विनती है। गरीबों पर रहम किया करें मैडम!’’ रामदीन हाथ जोड़कर अनुनय-विनय किया।
	आगंतुक महिला रामप्रसाद पर दया करने के बजाय भौहें चढ़ाई और तुनक उठी, ‘‘जा, जा; ऐसी रामकहानी किसी और को सुनाकर लूटना। मैं तेरे झांसे में नहीं आने वाली।’’
	‘‘आपकी मर्जी। चलिए, बीस ही सही।’’ रामप्रसाद हाथ आए ग्राहक को नाराज होता देखकर सामान उठाया और चलने लगा।
	इस प्रकार रामप्रसाद आगे-आगे और मेम साहिबा पीछे-पीछे चल पड़े। वे भीड़ को चीरते हुए थोड़ी देर में ही मेन गेट पर पहुंच गए। 
तभी एक बटमार मेम साहिबा के पर्स पर बंदर की भांति ऐसा झपट्टा मारकर भागा कि मेम साहिबा ‘चोर-चोर’ चिल्लाने लगी, ‘‘अरे, कोई पकड़ो, उसे। वो मेरा पर्स लेकर भागा जा रहा है।’’
	रामप्रसाद सामान वहीं पटका और पवन की गति से सरपट दौड़कर उसे लंगी मारा और गिरा दिया। 
फिर कालर पकड़कर दो-चार लात-घूसे जमाकर पर्स छीन लिया। 
पर्स मेम साहिबा को सकुशल लौटाते हुए बोला,‘‘लीजिए आपका पर्स! संभालकर रखिए। यहां झपटमारों की कोई कमी नहीं है।’’
	पर्स देख मेम साहिबा की जान-में-जान आई। पर्स में तमाम कागजात सहित सात हजार रुपये भी थे, जो राहखर्च के लिए रखे गए थे। 
वह खुशी-खुशी रामप्रसाद को पांच सौ रुपया थमाते हुए बोली, ‘‘ये लो; तुम्हारी बहादुरी का इनाम।’’
	‘‘मुझे इनाम नहीं, केवल दस रुपया बख्सीस चाहिए मैडम। बाकी दूसरे दयालु ग्राहकों से ले ही लूंगा।’’ 
...और रामप्रसाद दस का नोट लिया और वहां से चलता बना। मेम साहिबा देखती रह गई।
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अनुरोध है कि लेखक के द्वारा वृहद पाकेट नावेल ‘पंचायत’ लिखा जा रहा है, जिसको गूगल क्रोम, प्ले स्टोर के माध्यम से writer.pocketnovel.com पर  ‘‘पंचायत, veerendra kumar dewangan से सर्च कर व पाकेट नावेल के चेप्टरों को प्रतिदिन पढ़कर उपन्यास का आनंद उठाया जा सकता है और लाईक, कमेंट व शेयर किया जा सकता है।

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