Santosh kumar koli 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक मज़दूर 39356 0 Hindi :: हिंदी
पसीने की क़ीमत, किसने आंकी? हाथ कुदाली, सिर पर परात, दिखती श्रम की झांकी। पसीने से ही, धरती का दामन पसीजता है। चोटी से एड़ी का पसीना, धरा का सीना चीरता है। कुदाली की चोट से, नव सृजन का आगाज हुआ। सृजन मज़दूर की माया, कल हुआ या आज हुआ। कुंदन गात रश्मि संग, रमक़ रही तृष्णा। सर्दी, गर्मी, वर्षा करते, प्रमोदक प्रदक्षिणा। पैवंदी पैंट, अब ज़्यादा फटने से डरती है। फ़ेल चैन, उधड़ी तुरपई, इसी पर तो फबती है। टूटे बटन, फटी शर्ट से, हड्डियां बाहर झांकती हैं। उजड़ी दाढ़ी, उधड़ी सिलाई, उम्र को फांकती है। चुग़लखोर जूते, इंडुरी ईश्वरीय सौग़ात। मज़दूरीय पोशाक में, कृश-काया भी देती है साथ। ग़रीबी से खुश, ग़रीबी इससे खुश। आटा मोटे खा गए, इसके हिस्से तुष। हर काल इस हेतु, काल ही रहा है। हर राज इस हितार्थ, मकर- जाल ही रहा है। मज़दूर, तू फिर भी मज़े में, दुनिया मज़े को तरसती है। मज़े की बौछार, तेरे झोंपड़े पर ही तो बरसती है।