लघुकथाःः
वक्त की नजाकतःः
दो पड़ोसी आपस में बतिया रहे थे। एक कह रहा था,‘‘अजब जमाना आ गया है। न शर्म रह गया है, न हया। लड़कियां छोटे-छोटे कपड़े पहन रही हैं। रोको-टोको तो घर में कोहराम मचा रही हैं।’’
वह खंखारकर थूका, फिर बोला,‘‘कल की बात है। राकेश की लड़की किसी गैर-मजहबी लड़के के साथ भाग गई। बेचारे की बिरादरी में नाक कट गई। उसका घर से निकलना दुभर हो गया है।’’
इस पर दूसरा बोल रहा था,‘‘मैंने भी सुना है। पर, इसमें बुराई कहां है? मियां-बीवी राजी, तो क्या करेगा काजी? स्वतंत्रता और स्वच्छंदता कहीं तो असर दिखाएगी। सो, दिखा रही है। ऐसे मामले अब रोजाना होने लगे हैं। यह घर-घर की कहानी बन गई है।’’
पहला असहमत होते हुए बोल रहा था,‘‘ये कोरी बातें हैं। व्यावहारिकता से दूर एक बकवास। सभी चाहते हैं कि अपने बेटा-बेटी उनकी रजामंदी से शादी करें। मंडप सजे; तेल-हल्दी लगे; सेहरा बंधे; शहनाई बजे। क्या आप ऐसा नहीं चाहते?’’
दूसरे को पहले की बात मर्म पर लगी। वह तिलमिलाकर बोला,‘‘यह वक्त बताएगा कि कल क्या होगा? ऊंट किस करवट बैठेगा, कौन जानता है? लेकिन, माता-पिता का हित इसी में है कि हम बच्चों की राजी-खुशी का ख्याल रखें और उनकी खुशी में अपनी खुशी तलाशें।’’
‘‘यह तो समझौता हुआ भाई साहब? फिर माता-पिता का अपना क्या रहा?’’पहले ने आशंका जताई।
‘‘यही तो वक्त की नजाकत है। इसे ही कहते हैं, ‘जैसी बहे बयार, पीठ ताहि विधि दीजिए’ यदि ऐसा नहीं करेंगे, तो वक्त की आंधी में बह जाएंगे। फिर देश का कानून इनका समर्थक है। कानून बालिगों को स्वतंत्र निर्णय लेने की अनुमति देता है। हम कानून अपने हाथ में नहीं ले सकते।’’
जहां नियम-कानून की बात सामने आई, दोनों समझ गए कि मामला दूर तलक जाएगा, इसलिए मामले में चुप्पी साध लेना ही बेहतर है। …और वे खामोशी से शून्य की ओर निहारने लगे, गोया कायदे-कानून के आगे उनकी एक न चलनी हो।
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