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जैसे कि तुम मुहाज़िर हो कोई

मारूफ आलम 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक # कविता# आदिवासी# जंगल# मुहाज़िर 20209 0 Hindi :: हिंदी

वो तुम्हें धितकारते हैं ऐसे
जैसे कि तुम काफिर हो कोई
जैसे ये वतन तुम्हारा ना हो 
जैसे कि तुम मुहाज़िर हो कोई
उन्हें नफरत है तुम्हारे रंग रूप से
वो जलते हैं तुम्हारे वजूद से
तुम्हारे साथ करते हैं क्रूरता का व्यवहार
तुम्हारे ख़ूनपसीने का होता है व्यापार
वो तुम्हें हांकते हैं ऐसे 
जैसे कि तुम जानवर हो कोई
जंगल काटकर गोदाम
वो भरते हैं
और भरपाई आप लोग करते हैं
जंगल काटते वो हैं मगर जेल तुम जाते हो
साल,दो साल काटकर वापस जब आते हो
तो पाते हो,तिरस्कार जमाने का
बंद हो चुका होता है हर रस्ता कमाने का
फिर भी तुम छोड़ते नही ये जंगल
ये नदियों के किनारे
क्योंकि यही तो घर संसार हैं तुम्हारे
मुझे फक्र है तुम पर,नाज है
तुम हितैषी हो जंगलों के तुमसे ही
जंगलों का कल और आज है
आदिवासी हो तुम ,तुम बिन अधूरा ये समाज है
मारूफ आलम

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