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औरत

ASHWANI PANDEY ( ADVOCATE ) 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक औरत 14544 0 Hindi :: हिंदी

❛वो औरत दौड़ कर रसोई तक,
दूध बिखरने से पहले बचा लेती है।

समेटने के कामयाब मामूली लम्हो में,
बिखरे ख्वाबो का गम भुला देती है।

वक़्त रहते रोटी जलने से बचा लेती,
कितनी हसरतो की राख उड़ा देती है।

एक कप टूटने से पहले सम्हालती,
टूटे हौसलो को मर्ज़ी से गिरा देती है।

कपड़ो के दाग छुड़ा लेती सलीके से,
ताज़ा जख्मो के हरे दाग भूला देती है।

कैद करती अरमान भूलने की खातिर,
रसोई के एयर टाइट डब्बो में सज़ा लेती है।

कमजोर लम्हो के अफ़सोस की स्याही,
दिल की दिवार से बेबस मिटा लेती है।

मेज़ कुर्सियों से गर्द साफ़ करती,
कुछ ख्वाबो पर धूल चढ़ा लेती है।

सबके सांचे में ढालते अपनी जिंदगी,
हुनर बर्तन धोते सिंक में बहा देती है।

कपड़ो की तह में लपेट खामोशी से,
अलमारी में कई शौक दबा देती है।

कुछ अज़ीज़ चेहरों की आसानी की खातिर,
अपने मकसद आले में रख भूला देती है।

घर भर को उन्मुक्त गगन में उड़ता देखने,
अपने सपनों के पंख काट लेती है।

हाँ हर घर में एक ​औरत​ है,
जो बिखरने से पहले सम्हाल लेती है।❜

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