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⛲....ठाकुर का कूआं....⚓

Amit Kumar prasad 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक This poem is on the best collection of Story Emperor Premchand's all story of Conclusion to prepared a nice glory of humanism. But every word is unique and this is a vision of glance. I hope that this will be fill to you best.. To this one way should be give to you all that.. " अर्जुन ने महाभारत्त सूरू होने से पहले प्रथम निर्णय माधव का साथ मांगने का लिया, फ़िर सारा निर्णय ईश्वर ने उसकि सफ़लता का ले लिया!" महत्वपुर्ण यह है, कि निर्णय सोंच समझ कर लेना चाहिये, उचीत्त और यथार्थ और रही बात्त सत्यत्ता कि त्तो.. " अयं निज: परोवेत्ती गणना लघुचेत्तसाम् उदारचरित्तानं वासुदेव कुटुम्बकम!".And I hope this will be fill to all of you great as before as you have been given to came bless from starting. With its Jai Hind..✍️. 92036 0 Hindi :: हिंदी

चाहत्त लम्बी, मेहनत्त त्तगड़ी, 
ईमान कमाई, संघर्ष त्तनहाई! 
किचड़ कि शांख, जाड़े कि रात्त,
पत्त्तों से आग, पुष कि रात्त!! 
                    मिट्टी पे मेहनत्त, मेहनत्त मे मिट्टी, 
                    संघर्ष मज़दुर कि, मेहनत्त मज़बुर थी! 
                    शाम लाचारी, दिवश बेगारी, 
                    मेहनत्त जरूरत्त का, अधिकार ठाकुर का!! 
रूख से रूख्सत्त, गुल से गुलशन, 
नीसां पे नीसार, हल से हलधार!
बेचैन हर साम, लिए हर काम, 
मेहनत्त दिन - रात्त, आंशुओं में ज़स्बात्त!! 
                        हर उम्र का फ़साना, मेहनत्त का नज़राना, 
                        फ़सलों का दात्ता, ज्यों साठे पे पाठा! 
                        कर्ज़ पे बेहाल, कर्ज़ का भ्रमार,
                        मेहनत्त उनकि, बाग उनके, त्तांक उनकि;
                        हर शाम उनके, पर अधिकार ठाकुर का!! 
हल कि रौनक, करत्ती धरा स्वर्ग, 
मेहनत्त से ज़ीवन, त्ताकत्त को अर्पण! 
लाखों थे नालें, मेहनत्त सम्भालें, 
कर धरत्ती ऊज़ालें, प्राकृत्ती के लालें!! 
                     एक मे त्तीन, कर्जों का ऋण , 
                     चुकाना महंत्म, खाना लघुत्तम! 
                     एक गांव कि गाथा, पड़े संकट में अन्न दात्ता, 
                    ज़ुखाम कि बिमारी, गन्दे ज़ल कि लाचारी!! 
वैद्ध ने छन्द दी, गन्दे ज़ल कि बन्दी, 
स्वच्छ ज़ल कि मन्दी, पड़े संकट में ज़ोखु और गंगी! 
ज़मीन उनका, मेहनत्त उनकि, ऋण बेगार, 
गृह उधार, पर कुआं ठाकुर का!! 
                      रात्त कि शांख, अंधकारों को झांक, 
                      चले राहों में आंख, भय ठाकुर कि नाक! 
                      ज़ोखू कि प्यास, गंगी गृहणी कि सांस, 
                     रात्त के अंधेरें, पहरेदारों के डेरे!! 
लाचार कि लाचारी, स्वच्छ ज़ल कि भ्रमारी,
सम्पुर्ण गांव से थी वंचीत्त, एक कुंआं ठाकुर का!! 
                भय को सम्भालें, पत्ती को बचाने, 
                पहुंची अंधेरों के छांव में, छुपत्ते और छुपात्ते!
                मट्टके को बांधें, कुएं में डालें, सर्र - सर्राहट से.. 
                जागे ठाकुर, गंगी भागी जान सम्भाले!! 
वृक्ष कि छांह, भेद - भाव के नीशां,
आंशू के नीगाह, दबी भय ठाकुर का!! 
             हिम्मत्त न जुटत्ती, वापिस राह फ़िरत्ती, 
             कर ज़ल गर्म छान, पिलात्ती और पित्ती! 
             त्याग गरिब के, बलिदान धरत्ती वीर के, 
             छु धरा सागर अमृत्त शुधा, पर कुआं ठाकुर का!!
मेहनत्त मे त्तप्ती, मेहनत्त कि शक्खत्ती, 
दिन - रात्त ही मेहनत्त, अज्ञानत्ता लाचारी! 
गबन और गोदान, रिवाज़ों के फ़र्मान,
त्तोत्ता राम के ईमान, एक चाहत्त नादान!! 
               ऋण कि उधारी, मज़दुरो कि लाचारी, 
               किस्त्त कि बिमारी, समाज़ को बिगाड़ी! 
               कर्ज के त्तले, गृह में कलेह, 
               दिन - रात्त सेवा दास सा, पर धम्की ठाकुर का!!
काठ के रज़्जु, स्वर्णायन नहीं चढ़त्तें, 
रोत्ती कहत्ती गृहणी.. 
सर्व श्रम उनका, चादर उनका, फ़ैलाव उनका, 
हुकुमत्त उनकि, अधिकार उनका, अत्याचार उनका;
                 प्रहार उनका, सरकार उनका, मेरा क्या? 
                 कुआं भी ठाकुर का!! 
कटत्ता करार, नदियों का संहार, 
चारों ओर कि त्तलें, लेत्ती सम्भाल! 
कर्तें संरक्क्षण, संघर्ष पुरा ज़ीवन, 
गाथा ए प्रेमचन्द में, रोत्ती बुढ़ी काकी!! 
           समाज़ का देख आंगन, देने वालों को ही अन - बन, 
           समाज़ भी उसीका, जीसके समक्क्ष महा धन! 
          व्यस्क और लाचारी, घीसटत्ती एक नारी, 
          जात्त से ब्राह्मण, श्रुब्द्धा आंशुं संग ज़ुठी खात्ती!! 
पर दबा के आंशु देत्ता, महा धर्म का महा धन, 
अम्बर से ज्यों पुष्प गीरात्तें, ईश्वर के है सभी मन! 
सच्चों कि ले परिक्क्षा,पर साथ दैव न छोड़े, 
विधर्मियों को दे सब कुछ, पर साथ ही न देत्तें!! 
          मेहनत्त कि इस धरा पर, पाखण्ड का भी डेरा, 
          मेहनत्त, कर्म छल - बल धरा, पर विवेक ठाकुर का! 
          गुल भी उनकि, गुलश्न भी उनकि, साज़ भी उनकि, 
          श्रृंगार भी उन्कि, प्रेम चन्द का क्या? 
          समाज़ भी ठाकुर का!! 
गृह मे अपना नहीं, त्तो बाहर भी कोई नहीं सगें, 
हंसी उनकि, रौनक उनके, प्राकर्म उनके, 
और प्रम उनकि कर्म का क्या? 
हां! कुआं... कुआं ठाकुर का!! 
              इंसाफ़ कर गुहारत्ता, मेहनत्त ऐश्वर्य का, 
              सब कुछ धरा और धाम है, दान परमेश्वर का! 
              गुण - गाण कर बना कहीं पंच परमेश्वर, 
              सच्च के लिए सगे परे, दो भाई और दो मित्रवर! 
कहीं मांगत्ती गुहार कर, कहीं लज्जीत्त रहा सम्बन्ध है, इसीका नाम समाज़ और इसिका नाम सरपंच है! 
ये पंच न प्रपंच है..क्योंकि मेहनत्त अर्शों कि, चाहत्त बर्शों कि, 
जीन्नत्त उत्कर्षों कि, प्रश्न चीन्ह निष्कर्षों कि, 
फ़िर न्याय का क्या? पंचायत्त भी ठाकुर का!! 
                     शीक्क्षा के संग, कर्म को जोड़, 
                     सुख का सागर गर बनाओगे! 
                     त्तबहीं इक नुत्तन समाज़ गठन कर, 
                     धरा नेत्तृत्व कर पाओगे!! 
वरना कुछ नुत्तन नहीं है, पुरात्तन, 
आंखों पर महज़, छल का है धुआं! 
समय पे राजा, समय पे रंक, 
कल्पना के दौर पर एक ही जरूरी, 
स्वागत्त करत्ता ठाकुर का कुआं!! 

Writter : Amit Kumar Prasad..🚁

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