Rupesh Singh Lostom 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक ग़ुम 33224 0 Hindi :: हिंदी
अविश्वास ही अविश्वास हैं इस दोहरी समाज में इंसान ही इंसान को हर जगह गिरा रहा ग़ुम गई इन्सानियत इंसान के करतूत से संदेह में प्रारब्ध हैं लहू लहू चरों तरफ लहु लुहान देश हैं लूट रही हैं बेटियां सर्मिन्दा लोकतंत्र हैं सर्म करो नेताओं गर्दिश में सारा मुल्क हैं आप की ये नीतियां आप सा खामोश अन्न को तरस रहे बहुत प्यासे भी मर रहे तो कही सैलाव ही सैलाव वेदना ही वेदना जाहां तक आश्मान हैं सहानभूति से जी रहा आधा हिंदुस्तान हैं