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कलम बोध

Rambriksh Bahadurpuri 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक #Rambriksh kavita#Ambedkarnagar poetry#kalam per kavita#Lekhni per kavita#kalambodh kavita rambriksh#samajik kavita 12520 0 Hindi :: हिंदी

कलम हूं कलम मैं
अनोखी कलम हूं। 

   कोरा था कागज
   थी मंजिल सफर पर
   चली चाल टेढ़ी
   पकड़ कर डगर को
   कभी हाथ जज के
   मुकद्दर लिखी हूं
   कभी मौत लिख कर
   बनी बावली हूं
   गयी टूट खुद मैं
   बड़ी बेरहम हूं
   कभी बक्स जीवन
   रही मस्तमौला
   हस हस के रहती
   खुश दिल अमन हूं। 
   
कलम हूं कलम मैं
अनोखी कलम हूं।   

   किसी की कहानी
   जुबानी किसी की
   न इतिहास लिखते
   थकी मैं कभी भी
   शहीदी सहादत
   स्वदेशी बगावत
   फांसी की कीमत
   अमर कर चली हूं
   पिरोयी हूं अक्षर
   मोती के कण सा
   लिखी गीत जन गण---
   वंदे मातरम् हूं। 

कलम हूं कलम मैं
अनोखी कलम हूं।   

   थिरकती चली मैं
   लिखी भाग्य रेखा
   न प्रेमी न दुश्मन
   अकिंचन न राजा
   पकड़ कर जो रखा
   संभाला संभल कर
   उसी की दिवाली
   उसी की मुकद्दर
   चली बन चली मैं
   गजल गीत गम हूं। 

कलम हूं कलम मैं
अनोखी कलम हूं।   

   गयी टूट गर तो
   कहां कब झुकी हूं
   कभी झुक गयी भी
   तो टूटी नहीं हूं
   जीवन मरण मर्म
   बिरह वेदना भी
   सुख दुःख का संगम
   समागम लिखी हूं
   लिखी सूर मीरा
   व तुलसी कबीरा
   लिखने में भक्ती
   विरासत अहम हूं
   हिमाचल की गंगा
   जल सी निर्मल हूं

कलम हूं कलम मैं
अनोखी कलम हूं।  

   



रचनाकार- रामवृक्ष,अम्बेडकरनगर। 




    

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