तो क्या मैं अब ख्वाब देखना ही छोड़ दूं -सौरभ लखनवी
माना कि राह मुश्किल है मंजिल की बहुत, तो क्या मैं अब ख्वाब देखना ही छोड़ दूँ ? तमाम लोग शिकश्त खाकर बैठ गये है यहाँ, सिर्फ इस वजह से मैं भी कोशिश करना छोड़ दूं ? “उसकी” रहमतों से मंजिल के करीब पहुँच गया हूं मैं, और तुम ये कहते हो कि “उसपे” यकीन …
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