संदीप कुमार सिंह 25 Apr 2023 कविताएँ समाजिक मेरी यह कविता समाजिक हित में है। जिसे पढ़कर पाठक गण काफी लाभान्वित होंगें। 8388 0 Hindi :: हिंदी
चंचल _चांदनी है,जगमगाते तारें , महकी रात है। आंखों में आनंद की रौशनी है, लब पर मधुर गीत के बोल हैं। सफ़ेद आसमान यूं देख रहें हैं, जैसे उनके निगाहें मुझे देख रहें हों। आलम यह कैसा अद्भुत है, वीरानगी की दृश्य छाई है। वीरानगी की छाती चीर, अमृत नीर बहा रही हो। रात की दर्पण में, मैं देख रहा हूं। तमाम अकाश गंगा, अपनी मधुर तान दे रही है। मन मेरा उतावला, हुआ जा रहा है। सारे नजारे दृष्टिगोचर हो रहें हैं, दर्पण यह कैसा गजब है? हृदयतल के सारे तार, झंझकृत हो रहें हैं। आज समा गज़ब है, आज आसमा गजब है। धरा की नींद कहीं खो गई है, एक अनोखी जागृति छाई है। रात की दर्पण में, तमाम उन्माद निकल रहें हैं, मेरे जैसे सबके दिल में ही, अदृश्य परिहास चल रहीं हैं। (स्वरचित मौलिक) संदीप कुमार सिंह✍🏼 जिला:_समस्तीपुर(देवड़ा)बिहार
I am a writer and social worker.Poems are most likeble for me....