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जुगाड़-सबके अपने-अपने जुगाड़ अपने -अपने कबाड़

Santosh kumar koli ' अकेला' 12 Aug 2023 कविताएँ समाजिक जुगाड़ 8803 0 Hindi :: हिंदी

कोई रोटी हलाल की,
कोई हराम की खाता है।
कोई रोटी बेचकर,
कोई खरीदकर कमाता है।
कोई मारकर, कोई बचाकर,
रोटी जुगाड़ बिठाता है।
कोई ज़ोराज़ोरी से,
कोई कमज़ोरी से खाता है।
कोई करता धाड़,कोई झोंकता भाड़।
सब, करते हैं जुगाड़।
सब, करते हैं जुगाड़।
जन्म, जीवन, मरण में भी,
जुगाड़ की दरकार।
घर, परिवार चलते,
चलते देश, सरकार।
दिमाग़ी जुगाड़ गांधी का,
बदले देश, संसार।
जुगाड़ बैठे गुलाम का,
तो बादशाह ताबेदार।
बनते, बिगड़ते जुगाड़ को,
सब लेते हैं ताड़।
सब, करते हैं जुगाड़।
सब, करते हैं जुगाड़।
शिष्य नहीं बनाएं गुरु,
मूर्ति लगा लेते हैं।
शिष्य से आगे निकले दूसरा,
अंगूठा कटा लेते हैं।
वक़्त के तक़ाज़े से,
ट्रैक्टर को टैंक बना लेते हैं।
तीर- तलवार की जगह,
गुलेल से काम चला लेते हैं।
सबके अपने-अपने जुगाड़, अपने -अपने कबाड़।
सब, करते हैं जुगाड़।
सब, करते हैं जुगाड़।

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