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Santosh kumar koli ' अकेला'

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My Articles

कर्म से बदले तक़दीर। जैसे उड़ते बादल की, बदले राह समीर। कर्महीन नर का जग में, जीना है बेकार। अलि अलविदा कहेंगे, जब हो कंटीली बार। रात read more >>
चक्कर है साहब, पड़ ही जाता है। राई का बन जाता पहाड़, गढ़ी बन जाता है गढ़। पाठा का नाटा बन जाता, पहाड़ का बने कंकड़। मकड़ी फंसती मकड़ -जाल, read more >>
कांच के कंगूरे, कांच की दीवार। रहने वाले कांच के, कौन करे पत्थर से वार? इस दुनिया में कांच के, चिरक ढांस हैं घर। रहने वालों में, अजीब -सा स read more >>
घर में पिताजी हैं, तो नौकर के पैसे बचते हैं। सब्ज़ी खरीदने, बच्चों को स्कूल लाने, ले जाने में जचते हैं। पिताजी घर में, नौकर नहीं, तो क्या read more >>
पर्वत से नदी निकलती, लेकर नई उमंग। कैसे, कौन रोकता है, मिल जाऊं सिंधु के संग। झर- झर, झर- झर झरने बहते, उसको दे देते आधार। एक-एक से मिल बन जा read more >>
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