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Lajja

Abhay singh 30 Mar 2023 आलेख समाजिक Lajja 20424 0 Hindi :: हिंदी

लज्जा 

लज्जा का सीधा साधा और शाब्दिक अर्थ है शर्म। और शर्म कब आती है जब हम एक मानक स्तर से जो अभी तक व्यवहार में था उससे कहीं नीचे गिरते हैं। इसीलिए समय-समय पर बहुत से लोगों की दृष्टि में लज्जा के अर्थ भी बदल गए हैं। पहले कभी नववधू पलकों की ओट से भी पति को यदि निहारती थी और किसी की नजर पड़ गई तो भी उसे लज्जा आ जाती थी। क्या आज वह संदर्भ बचा है? शायद नहीं। शहरों में तो कतई नहीं। गाँव देहात के विषय में मुझे उतना ज्ञात नहीं है। स्थिति तो वहाँ भी बदली है। शादियों में लगे स्टेज उनमें चलते डीजे को देखकर आप अनुमान लगा  सकते हैं। पहले जिन कार्यों को करने में सबको लज्जा आती थी अब खुलेआम पार्टी की शोभा बनते हैं। विशेष रूप से मैं शराब के विषय में कहना चाहूंगा। जो काम पहले चोरी छुपे किए जाते थे सबके सामने लज्जा महसूस होती थी जैसे किसी का सिगरेट पीना, शराब लेना, गर्लफ्रेंड या बॉयफ्रेंड बनाना और न जाने क्या-क्या। अब वह सब कार्य जो पहले लज्जा के विषय थे अब स्टेटस सिंबल बनने लगे हैं लज्जा तो जाने कहाँ चली गई। एक जमाना था जब विद्यालय में जो पढ़ाई होती थी उसके अतिरिक्त गाइड आदि खरीदने में भी लज्जा महसूस होती थी। ट्यूशन की तो बात ही छोड़ो और आज तो ट्यूशन बिजनेस बन गया है कोचिंग चलने लगी हैं। ऐसे ही हमारे मूल स्वभाव के साथ हुआ है। पहले हमारे स्वभाव में व्यक्तिगत रूप से कितने सारे मूल गुण रूप में नैतिक मूल्य समाहित थे और अब नैतिक मूल्यों का पतन इतने स्तर तक हो गया है फिर भी हमें लज्जा ही नहीं आती। बड़ों का आदर सम्मान बोलचाल की शालीनता रिश्तो में मिठास अपनापन बड़े बुजुर्गों की सेवा अपनी संस्कृति संस्कार न जाने कितनी अच्छी चीज छोड़ने के बाद भी हमें लज्जा नहीं आती। इसमें स्त्री-पुरुष का भेद नहीं है क्योंकि स्तर तो सभी का गिरा है।  अगर स्त्रियां अपने को सीता के रूप में नहीं रख पाई हैं तो पुरुष भी राम नहीं रह पाए हैं। क्रोध अहंकार इतना सर चढ़ा कि हम रसातल में पहुँच गए, फिर भी लज्जा नहीं आई। आहार-विहार सब में गिरते गए उन्नत सनातनी हम इतने पतन के स्तर पर आ चुके हैं फिर भी लज्जा नहीं आती। अंधाधुंध फैशन ने हमारे शालीन परिधानों की धज्जियाँ उड़ा दी हैं। देह उघाड़ू वस्त्र पहनने में भी हमें  लज्जा नहीं आती। और बड़े शान से महफिलो की स्टेज की और हर जगह की शोभा बनते हैं 
        अगर हम लज्जा का कोई पैमाना बना लें तब शायद हम तुलना करके देख सकते हैं कि हम कहाँ से कहाँ पहुंच गए हैं। अन्यथा लोगों की सोच में लज्जा के मायने समाप्त हो गए हैं। कभी-कभी तो गलत ढंग से भी लज्जा को थोपा गया है हर जगह स्त्री को ही मोहरा बनाकर उसे शर्म के दायरे में लाया गया है या कहीं उस पर अत्याचार किए गए हैं उसकी गलतियां ना होने पर भी उसे अपराधी के कटघरे में खड़ा कर लज्जा का जामा पहनाया गया है जैसे मैं कुछ उदाहरण देता हूँ, पहले किसी स्त्री के साथ कोई सामूहिक  दुुष्कृत्य हो जाए या किसी के द्वारा भी स्त्री प्रताड़ित हो तो स्त्री को ही शर्म का जामा पहनना पड़ता था। उसके साथ गलत हुआ लेकिन शर्म भी वही महसूस करे। कई बार आत्महत्या की घटनाएं उसी शर्म के कारण हुई हैं। जिसमें दर्द सह कर भी उसे आरोपित किया गया।  छेड़छाड़ की जितनी घटनाएं लड़कियों के साथ होंगी, तो उसमें शर्म भी उन्हीं को आनी चाहिए। यह सब पहले की बात थी आज समय बदला है। शायद पहले के असंगत तरीकों और असंगत व्यवहार ने भी लज्जा को एक किनारे कर दिया है। अच्छी चीजें, अच्छी व्यवस्था या अच्छा कुछ भी अगर अच्छा न रह पाया समय के साथ अपने को व्यवस्थित नहीं कर पाया तो उन्हें नकार दिया गया। गिरते हुए मूल्यों के साथ भागते हुए समय में सामंजस्य बैठा कर चलना पड़ता है ताकि बिगड़ने से बचा जा सके और जो कुछ बिगड़ रहा है उसे बचाकर सही किया जा सके ताकि हम मानव मूल्यों के गिरने में भी लज्जा करना भूल न जाएं।परिणामस्वरूप निर्लज्ज  की श्रेणी में नआ जाएं।

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