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दान कैसे करें

Gopesh prakash 30 Mar 2023 आलेख धार्मिक दान कैसे, कब और किसे करें 6277 0 Hindi :: हिंदी

*समय हो तभी पढ़ियेगा*🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏      
           

           *इस लेख को मैंने किसी के भावनाओं को ठेस पहुंचाने के उद्देश्य से नहीं लिखा है। मैने मेरे मन में उठे दान करने के विचारों को केवल और केवल शब्दों में ढालने की कोशिश की है। यदि मेरे इन विचारों से किसी की भावना आहत होती है तो उसके लिए मै क्षमा प्रार्थी हूँ , और यदि आपको मेरे विचार अच्छे लगें तो इस पोस्ट को लाइक और शेयर जरूर करें।* 

*स्वच्छता और दान में          सम्बन्ध* 
💥💥💥💥💥

          स्वच्छता क्या है  ? 
मलिनता को दूर करना ही स्वच्छता है। 
स्वच्छता कितने प्रकार की होती है  ?
स्वच्छता दो प्रकार की होती है ---
1 - बाह्य स्वच्छता 
2 - अंतः स्वच्छता 
    बाह्य स्वच्छता से तात्पर्य, शारीरिक , सामाजिक,सांस्कृतिक, धार्मिक, पर्यावरणीय आदि बाहरी स्वच्छताओं से है जो मनुष्य व्यवहार में परिलक्षित होता है या दिखाई देता है । वैसे उपरोक्त दोनों प्रकार की स्वच्छताओं में सबसे महत्वपूर्ण  अंतः स्वच्छता को ही माना जाता है। जिस व्यक्ति का अंन्तःकरण स्वच्छ,शुद्ध एवं सात्विक होता है उस व्यक्ति में अन्य सभी प्रकार की स्वच्छताओं एवं शुद्धताओं का समावेश स्वतः हो जाता है, परन्तु बाहर की स्वच्छता को देखकर हम किसी के भीतर की स्वच्छता का अनुमान नहीं लगा सकते। कहा गया है कि 'तन का  उजला और मन का काला ' या 'मुँह में राम बगल में छुरी 'आदि। अतः आदर्श जीवन के लिए अंतः करण का शुद्ध होना अतिआवश्यक है। जिसका मन शुद्ध एवं सात्विक होगा उसके पास किसी प्रकार की मलिनता फटक नहीं सकती। कहते हैं कि उजले तन पे मान किया क्या, जब मन का मैल ना धोए। 
        
           अंतः स्वच्छता के लिए सबसे जरूरी है मन का स्वच्छ होना और मन की स्वच्छता के लिए सबसे जरूरी है धन का स्वच्छ होना। 
चौंकिए मत! 
मन का और धन का बहुत ही आन्तरिक संबंध है। 
आप कहेंगे कैसे ? 
 कहा गया है कि *जैसा खाओगे अन्न वैसा होगा मन।* 
उदाहरण स्वरूप महाभारत में एक प्रसंग है कि  सूर्य देवता दक्षिणायण से उत्तरायण हो चुके थे। मकरसंक्रांति का दिन था। आज पितामह भीष्म शरीर का त्याग करने वाले थे। भगवान कृष्ण और द्रौपदी सहित सभी पाण्डव भीष्म को घेरे खड़े थे। युधिष्ठिर श्री कृष्ण के कहने से पितामह से नीतियों की शिक्षा ले रहे थे। अचानक द्रोपदी की व्यंग्यात्मक हंसी वातावरण में फैल कर सभी का ध्यान  बरबस ही  अपनी तरफ आकर्षित कर गयी। सन्नाटा पसर गया था। वस्तुस्थिति को वहाँ उपस्थित हर व्यक्ति अपने-अपने  दृष्टिकोण से समझने का प्रयास कर रहा था। आखिरकार भीष्म ने बोझिल स्थिति को खंडित करते हुए द्रोपदी से पूंछा        " क्यों बहू ! यह व्यंग हास्य किस लिए ?" द्रोपदी ने अपने को सम्भाला और इंकार में सिर हिलाते हुए कहा " नहीं पितामह! कोई बात नहीं। " 
*भीष्म बोले* " उच्च  कुल की स्त्रियों का आचरण इस प्रकार का अकारण हो ही नहीं सकता। लज्जा ही उनका आभूषण होता है। तुम्हारे हृदय में यदि कोई प्रश्न हो तो निस्संकोच पूछ लो बेटी। अपने अंतिम समय में मैं अपने आप से जुड़े हर भ्रांति का निस्तारण कर देना चाहता हूँ। जिससे मुझे शांति की प्राप्ति होगी।"
बहुत उकसाने पर आखिर *पांचाली* बिफर पडीं  "पितामह!जब भरी सभागार के मध्य उच्च कुल की एक पुत्रवधु को वस्त्रहीन किया जा रहा था, जहाँ आप जैसे नीति रीति की शिक्षा देने वाले महान व्यक्ति भी आँखें बन्द किये उपस्थित थे। उस समय आपके नीतियों और शास्त्रों का ज्ञान कुंठित हो गया था। एक बार भी आपने उस अनुचित व्यवहार का विरोध करना भी उचित नहीं समझा। "
द्रोपदी की चेहरा तमतमा रहा था, अतीत के दुखद एहसास के स्मरण से मानो आँखों में रक्त उतर आया हो। वह यहीं पर नहीं रुकीं। लाल-लाल नेत्रों से अंगारे बरसाती बह आगे बोलती ही रहीं             " पितामह आप मेरी हंसी का कारण जानना चाहते हैं ना , तो सुनिए आज इस स्थान पर उच्च कुल का एक पुरुष, जो अपनी पत्नी को एक वस्तु समझ कर जुए में हार चुका था और जब उसकी पत्नी के सम्मान के साथ भरी सभा में खिलवाड़ किया जाता है तो वह अपने विश्व के महान योद्धा भाईयों के साथ सिर नीचे किये बैठा रह जाता है, वही महान कुलीन पुरुष आज दूसरे महान नीति विशेषज्ञ से ज्ञान ग्रहण कर रहा है। जहाँ दोनों ने एक अबला स्त्री की करुण पुकार को सुनकर भी उसकी कोई सहायता करना उचित नहीं समझा। व्यर्थ है ऐसी नीति ज्ञान के लेने और देने से। तो पितामह! क्या मेरी जिज्ञासा को शांत कर सकेंगे आप ? उत्तर दीजिये पितामह!, मुझे उत्तर दीजिये  "
" हाँ बेटी! मै उत्तर दूंगा " भीष्म बड़े शांत स्वर में बोल पडे। "उस समय  मैं दुर्योधन के पाप ,अत्याचार और नकारात्मक सोच के अंश का भोजन ग्रहण कर रहा था। जिससे मेरी मति भी भ्रष्ट हो चुकी थी। मेरी सोच में भी  नकारात्मकता और भय व्याप्त हो चुका था। परन्तु इतने दिन सर सैय्या पर पड़े - पडे दुर्योधन के अन्न से बनने वाले रक्त का एक-एक कण मेरे शरीर से निकल चुका है। इस समय मैं पूर्ण सात्विक एवं शुद्ध हो चुका हूँ । मेरा मन पूर्ण रूप से सकारात्मक सोच धारण कर चुका है। अब मैं किसी को भी ज्ञान देने के पूर्ण अवस्था को प्राप्त कर चुका हूँ। " इस प्रकार भीष्म जी ने अपना अंतिम ज्ञान *जैसा खाओगे अन्न, वैसा होगा मन* दिया।
    इस प्रसंग से यह निष्कर्ष निकलता है कि हमें भोजन शुद्ध एवं सात्विक ग्रहण करना चाहिए। शुद्ध एवं सात्विक भोजन ग्रहण करने से ही हमारा मन भी शुद्ध एवं सात्विक होगा और हमारा मन शक्तिशाली होगा। 
     जिस धन से हम भोजन एकत्रित करते हैं वह धन भी शुद्ध एवं सात्विक होना चाहिए। अतएव अशुद्ध धन से एकत्रित किया हुआ भोजन भी अशुद्ध ही होगा।  
   अब हमें यह जानना आवश्यक है कि शुद्ध धन क्या है? और अशुद्ध धन क्या है ? 
        
         मेहनत, इमानदारी, सत्यता और न्याय इत्यादि से अर्जित धन *शुद्ध धन* है। पाप, भ्रष्टाचार, चोरी, बेईमानी, अत्याचार, अन्याय और किसी को दुख देकर आदि असंवैधानिक तरीके से अर्जित धन *अशुद्ध एवं असात्विक धन* होता है। 
मान लिया आप सरकारी इम्पलाई हो और बिना अवकाश लिए चार दिन कहीं व्यक्तिगत कार्य में व्यस्त रहते हो और वेतन में उन चार दिनों के भुगतान का आहरण करते हो तो आप असंवैधानिक रूप से धन की प्राप्ति करते हो। आपको यह प्राप्त धन अशुद्ध है। इसी प्रकार व्यापारी यदि संवैधानिक लाभ से अधिक लाभ अर्जित करता है तो वह धन भी अशुद्ध माना जाएगा। 
    
           मनुष्य में संग्रह करने का गुण होता है। संग्रह करने का यही गुण ही  शायद हमें जानवरों से अलग करता है। यही गुण कारण है मनुष्य के विकास का।परन्तु संग्रह के इसी गुण के अति के कारण ही आज मनुष्य हर तरह से अपना ही विनाश करने पर तुला हुआ है। हमारे शास्त्रों मे कहा गया है कि *आवश्यकता से अधिक धन या अन्य संसाधन संग्रह करना पाप की श्रेणी में आता है*। 
अब बात यह आती है कि जाने अनजाने हर किसी का कमाया हुआ धन अशुद्ध होता है। तो क्या अशुद्ध धन को शुद्ध करने का कोई निवारण भी हो सकता है? 
मेरा जवाब है "हाँ! " 
हमारे शास्त्रों, पुराणों या अन्य धर्मों के पवित्र पुस्तकों के अध्ययन में यह पाया गया है कि अशुद्ध धन को शुद्ध करने के लिए *दान* किया जाता है। हाँ भाई दान ही वह उपाय है जिससे हम अपने अशुद्ध धन को स्वच्छ कर सकते हैं। दान हर धर्म में किया जाता है बस उनके नाम अलग-अलग हैं जैसे जकात, खैरात और डोनेशन आदि। बहुत से धर्मो में तो  कमाई का प्रतिशत भी दान के लिए निश्चित कर दिया गया है। 
   अब सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि दान कब,कैसे और किसे किया जाय?
क्या मंदिर, मस्जिद ,चर्च एवं गुरुद्वारों आदि में या ब्राह्मणों को या गरीब लाचार मजबूर  लोगों को या अनाथाश्रमों को या ऐसी संस्थाओं को जो मानव कल्याण के लिए कार्य कर रहीं हों या स्वयंसेवी संस्थाओं आदि को। 
मैं कहूंगा *नहीं* 
ऋग्वेद में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि दान सुपात्र को करना चाहिए कुपात्र को कदापि नहीं। कुपात्र को दान करना पाप की श्रेणी में आता है। 
    दान करना एक महान एवं बहुत ही पुण्य का काम है। हमारा देश भारत नामचीन दानवीरों के गाथाओं से जाना जाता है। दान करने की परम्परा यहाँ सदियों से कायम है।सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र ,जिन्होंने महर्षि विश्वामित्र को अपना सर्वस्व दान करके दक्षिणा देने के लिए अपने पत्नी, बच्चे और खुद को भी  बेंच डाला। महर्षि दधीच जिन्होंने अपनी अपनी अस्थियों को दान करने के लिए अपना जीवन ही समाप्त कर लिया। इसी प्रकार दानवीर कर्ण, महाराज शिवि और हर्षवर्धन, चन्द्र गुप्त विक्रमादित्य द्वितीय  आदि दानवीरों की कहानियाँ सुनते सुनाते हम बड़े हुए हैं। यही नहीं इस भारत भूमि पर दानवों एवं राक्षसों की भी  दान करने में अग्रणी भूमिका रही है। दानव राज बलि के दान से कौन अंजान होगा जिनके दानशीलता का प्रत्यक्ष प्रमाण दक्षिण भारत में मनाया जाने वाला सबसे बडा पर्व *ओणम* आज भी गवाह है। राक्षस राज गयासुर की दानवीरता का प्रत्यक्ष साक्षी *गया धाम* है जहाँ पर सुर असुर नर एवं किन्नर आदि का पिण्ड दान किए बिना मुक्ति मिलना संभव ही  नहीं है। 
     परन्तु गहन चिंतन के उपरांत यह तथ्य सामने आता है कि इनमें से अधिकांश दानवीरों ने दान के लिए सुपात्र एवं कुपात्र के चयन में परिपक्वता का परिचय नहीं दिया। अधिकांश लोगों को दान के नाम पर छला गया। इनके दान करने के गुण को इनकी कमजोरी के रूप में उपयोग  किया गया ।
  कुपात्र को दान देना यदि पाप है तो जानबूझकर पाप करना समझदार व्यक्ति की निशानी नहीं है। 
   कोई व्यक्ति हतास, परेशान आपके पास आता है और आप से कहता है कि साहब तीन दिनों से भूखा हूँ मुझे कुछ पैसे दे दो जिससे मैं अपनी भूख मिटा सकूं। आप को उसकी हालात पर दया आती है और आप जेब से सौ रूपये निकाल कर उस निरीह व्यक्ति को पकड़ा कर चलते बनते हो। वह असहाय व्यक्ति मधुशाला में जाता है और झक कर मदिरा पान करके अपने घर पहुँचता है। घर पहुँच कर पत्नी और बच्चों पर खूब कहर बरपाता है। उसकी पत्नी अपने बच्चों को लेकर घर से बाहर बददुआ देते हुए निकल जाती है " रोज - रोज के कलह से तंग आ चुकी हूँ, पता नहीं कौन पापी इसे रोज पीने के पैसे देता है।हे भगवान उसे कभी सुख ना देना वह भी मेरी तरह .....  
इस जीवन से मौत ही अच्छी " और वह अपने बच्चों के साथ कूद कर नदी में जान दे देती है। 
अब आप क्या कहेंगे? आप ने पुण्य किया या पाप ? आपने सुपात्र को दान किया या कुपात्र को ?
 मैं तो कहूँगा की आपने एक कुपात्र को दान करके बहुत बडा पाप किया है। आपने दान करके दुआओं के बदले बददुआएँ ली है। उस परिवार के मौत के लिए  आप भी  कहीं ना कहीं जिम्मेदार हैं।
    बहुत समय पहले श्रीमद्भागवत कथा के लिए आये हुए बहुत विद्वान् वक्ता से किसी पुराण से संबंधित कथा मैंने सुनी थी।जो मैं यहाँ संक्षिप्त में प्रस्तुत कर रहा हूँ। 
   बहुत समय पहले एक बहुत ही महान राजा हुए। जिन्होंने अपने संपूर्ण जीवन में कोई भी अधार्मिक कृत्य नहीं किया। दानवीरता के लिए वे तीनों लोकों में प्रसिद्ध थे। उनके पास  में आया हुआ कोई भी याची, यथोचित सम्मान पाकर ही वापस गया। धर्म सभाओं में उनके नाम की मिसाल दी जाती थी। मृत्योपरांत खुद धर्मराज उन्हें ससम्मान अपने लोक लेकर गये। यथोचित आवभगत करने के उपरांत धर्मराज ने देवदूतों को बुलवाया और उन्हें, महाराज को स्वर्ग लोक में ले जाने का आदेश पारित किया ही था कि चित्रगुप्त जी चिंताजनक स्थिति में धर्मराज के पास आकर कुछ फुसफुसाये। धर्मराज जी चौंक कर बोले " चित्रगुप्त जी आपसे कहीं त्रुटि हो रही है, एक बार पुनः अपने लेखा जोखा का  अध्ययन करके उस त्रुटि को खोजिए। महाराज के धार्मिक कार्यों के बारे में तीनो लोकों में कौन अपरिचित हो सकता है। जिनकी महिमा का बखान देव, दानव, नर किन्नर आदि करते नहीं थकते, उस महान आत्मा के बारे में ऐसी बातें करना उचित नहीं है। "
महाराज भी उत्सुकता से उस स्थिति का अवलोकन कर रहे थे। चित्रगुप्त जी ने संकोचवश महाराज से पूछ ही लिया। "क्यों महाराज! क्या आपको याद है कि कभी कोई मछुआरा कभी आपसे कुछ सहायता माँगने आया था ?"
महाराज ने याद करते हुए कहा "हाँ! याद है चित्रगुप्त जी, एक बार एक मछुआरा मुझसे सहायता माँगने आया था। मेरे पूछने पर कि मैं आपकी किस प्रकार सहायता कर सकता हूँ ? उसने मुझसे केवल एक सोने का सिक्का माँगा था। उस समय मुझे आश्चर्य हुआ क्योंकि मैं उसे उसकी  माँग से अधिक देने के बारे में सोच रहा था। परन्तु उसने केवल एक सोने का सिक्का स्वीकार किया और वहाँ से चला गया। "
आगे की आश्चर्यजनक कहानी चित्रगुप्त जी ने सुनाना शुरू किया "महाराज!मछुआरा आपसे एक सोने के सिक्के का दान प्राप्त करके बाजार पहुँचा। उसी सिक्के से उसने जाल बनाने का बहुत सारा सामान खरीदकर बहुत बडा जाल बनाया। आज तक उसने उस जाल से बहुत सारी मछलियों का संहार किया । जिसके पाप का कुछ अंश आपके खाते में भी जुडता रहा । क्षमा महाराज! मुझे बताने में अफसोस हो रहा है कि आपके जीवन भर का अर्जित पुण्य, इस पाप से कब का दब गया है। इसलिए आपको स्वर्गलोक के बजाय नर्कलोक में प्रस्थान करना पडेगा। " 
   धर्मराज जी के साथ-साथ महाराज भी अचंभित रह गये। उन्होंने हाथ जोड़कर धर्मराज जी से कहा " हे धर्मराज!मैंने तो अपने धर्म का पालन किया। यदि मैं उसे वहाँ से खाली हाथ भेज देता तो यह अधर्म नहीं होता। मैंने तो एक याची को संतुष्ट किया। इसमें मेरी त्रुटि कहाँ है भगवन ?"
धर्मराज जी बोले " अप्रत्यक्ष रूप से इतनी सारी मछलियों के संहार में आप दोषी हो। क्योंकि इनके संहार के साधनों को जाने अनजाने आपने ही उपलब्ध कराया है। दान देने से पहले कुपात्र एवं सुपात्र का चयन करना बहुत ही अनिवार्य है। आपने एक कुपात्र व्यक्ति को दान करके अपने पुण्य को भी गँवा दिया। रही बात याची को खाली हाथ वापस भेजने के अधर्म की तो आप राजा थे। आप उसकी वास्तविक  आवश्यकता की जानकारियां प्राप्त करके भी उसकी सहायता कर सकते थे। "
महाराज ने दुःखी मन से याचना करते हुए धर्मराज जी से पूछा " हे धर्मदेव! अज्ञात अवस्था में हुए इस पाप के समाधान के बारे में मुझ अभागे को कुछ बताइए। "
धर्मराज जी बोले "इस परिस्थिति का समाधान आपके द्वारा प्राप्त दान से यदि कोई व्यक्ति इस पाप से भी अधिक पुण्य के कार्य करे और वही आपके पुण्य को बढा कर आपके पाप कर्म को कम कर सकता है। "
  इस पौराणिक कथा ने ही मेरे अंतर्मन को झकझोर कर रख दिया,और मुझे इस विषय पर चिन्तन करने पर विवश कर दिया। एक महान,प्रतापी,और  पूरा जीवन धर्म के नाम पर जीने वाले राजा 
के दान जैसे महान कर्म के लिए मात्र सुपात्र का चयन ना कर पाना कितना घातक सिद्ध हुआ। 
      कहा जाता है कि दान जन्म - जन्मान्तर के लिए निवेश होता है। दान का रिटर्न कई जन्मों तक प्राप्त होता रहता है। जो जितना ही अधिक दान-पुण्य वर्तमान मनुष्य जीवन में करता है उसका प्रतिफल इस जन्म के साथ-साथ भविष्य के जन्मों में भी लाखों गुना होकर वापस प्राप्त होता है। वर्तमान समय में हम अपने बचत किए धन को किसी भी प्रतिष्ठान या शेयर बाजार में निवेश करने के पहले उस प्रतिष्ठान या योजनाओं का एक-एक कच्चा चिट्ठा खगांल कर सुरक्षित योजनाओं में ही निवेश का निर्णय लेते हैं। तो फिर दो जन्मों के लिए निवेश कार्य अर्थात दान-पुण्य के कार्य को इतनी लापरवाही से कैसे निवेश कर सकते हैं ?
       दान कई प्रकार के होते हैं। जैसे....
धन का दान, वस्त्र दान, स्वर्ण दान, अन्न दान, फल दान, भू दान, गोदान ,कन्या दान, रक्त दान, विद्या दान, और अंगदान आदि। इन सब दानों में महादान कन्या दान को माना गया है। कन्या दान के लिए हम अच्छे घर-वर की तलाश में कितना कुछ परेशानी झेलते हैं। अच्छे और सुपात्र वर की तलाश में दिन रात एक कर देते हैं। वह इसलिए कि अपनी कन्या वहाँ जाये तो सुखपूर्वक जीवन निर्वाह करे।इसके लिए हर माँ-बाप अपनी क्षमता से अधिक दान दहेज भी देते हैं। फिर भी अगर गलती से भी किसी कुपात्र वर का चयन हो जाता है तो आगे के घटना को सोच कर ही शरीर में सिहरन होने लगती है। 
   अब आते हैं मुख्य बिंदु पर की दान की शुरुआत कहाँ से किया जाय ?
     मेरे विचार से *दान की शुरुआत स्वयं से करनी चाहिए*।
*हाँ!सही पढ़ा आपने*
   स्वयं से ही करें दान का शुभारंभ।  
हम दिन और रात मेहनत करके, शुद्ध या अशुद्ध के ज्ञान के अनजान कुछ अच्छा और कुछ बुरा  करके, अनेकों कष्टों को झेल कर , अपना रक्त और स्वेद एक करके एवं दिन -रात एक करके जो अशुद्ध धन अर्जित करते हैं, उसको शुद्ध धन में परिवर्तित करने के लिए दान तो जरूरी है ही। परन्तु हमें यह भी याद रखना होगा कि हमारे परिवार में जितने भी सदस्य हैं उन सभी की जिम्मेदारी परमपिता परमात्मा ने हमको ही सौंपी है। वे हम पर ही आश्रित होते हैं।हम जो भी पाप एवं पुण्य का भेद किए बिना, मेहनत, मजदूरी आदि करके जो धन अर्जित करते हैं, वह सब इन्हीं की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ही तो करते हैं।जिससे की हमारा परिवार सुखी रह सके।                     अतः हमें दान की शुरुआत अपने माँ-बाप से ही करनी चाहिए उनकी जरूरतों को पूरा करके। हमारे माँ-बाप आभाव में हों और हम वृद्धाश्रम में धन डोनेट करें तो वह दान दान नहीं माना जाएगा। उसके बाद आप को अपनी पत्नी/पति को देखना है। आपकी पत्नी/पति के पास कपडे नहीं है वह फटे पुराने कपड़ों में गुजारा करती/करता है और आप बाहर वस्त्र दान करते हैं तो वह दान दान नहीं माना जाएगा। पत्नी/पति की हर जरूरतों को पूरा करना आपका दायित्व है। यदि आपकी पत्नी/पति हर तरह से संतुष्ट है तो आपको अपने बच्चों को देखना होगा। आपके अपने बच्चों का लालन पालन, शिक्षा दीक्षा और उनमें अच्छे संस्कार डालना आपका परम दायित्व है। आपके बच्चे आभाव ग्रस्त हों और आप अनाथ आश्रम में दान करें तो वह दान दान नहीं माना जाएगा। आपके बच्चे भी पूरी तरह संतुष्ट हों तो फिर आप अपने पर ध्यान दीजिए। आप बीमार हों और आप दूसरे का अस्पताल में इलाज करवायें तो यह दान दान नहीं माना जाएगा। अब यदि आपके माता-पिता आपकी पत्नी/पति, आपके बच्चे और आप पूरी तरह संतुष्ट हों और आपके पास आवश्यकता से अधिक धन या अन्य संशाधन का बचत हो रहा है अथवा आपके पास दान करने योग्य धन अवशेष हो तो आप अपने भाई के परिवार के तरफ ध्यान देंगे। आपके भाई का परिवार आभाव में जीवन यापन कर रहा हो और आप अपनी दानवीरता कहीं मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा और चर्च आदि में प्रदर्शित कर रहें हों तो वह दान दान नहीं माना जाएगा। दान करना ही है तो आप अपने भाई के परिवार की हर संभव मदद करो। इससे अच्छा सुपात्र और इससे अच्छा दान और कोई हो ही नहीं सकता।अब अगर आपके भाइयों का परिवार पूरी तरह संतुष्ट हो और आप आगे भी दान करने में सक्षम हों तो आपको अपने पडोसियों को देखना होगा। आप हजारों गरीब-दुखियों  और ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं और आपके पडोसियों का परिवार तीन दिनों से भूखा है।तो आपका दान पुण्य सब बेकार है। *स्वामी विवेकानंद जी* नें कहा है कि यदि आपका पडोसी भूखा है तो आपका मंदिर में प्रसाद चढाना व्यर्थ है। आप अपने पडोसियों की जरूरतों को पूरा करिये। इससे बडा दान कोई हो ही नहीं सकता। 
यदि आपके पडोसी पूरी तरह संतुष्ट हों तो आप अपने मित्रों को देखिये। आपके मित्र भी संतुष्ट हों  फिर आप अपने गुरुओं  को,अपने सगे-संबंधियों,  नातेदारों रिश्तेदारों और फिर अपने समाज को अपने गाँव को अपने देश प्रदेश को, अपने धर्म को,और पूरे विश्व आदि को प्राथमिकता दे सकते हैं। अगर इस प्रकार से दान विश्व के सभी लोग करने लगे तो शायद कोई भी व्यक्ति आभाव ग्रस्त नहीं रहेगा। और एक नया युग स्थापित होगा जहाँ सबके हृदय में सहयोग की भावना होगी और सभी का धन शुद्ध होगा। जब सबका धन शुद्ध होगा तब सबका मन स्वच्छ होगा। और जब सबका मन स्वच्छ होगा तो सारा वातावरण स्वच्छ होगा सारा देश स्वच्छ होगा और इस प्रकार सारा विश्व स्वच्छ होगा।
    *गोस्वामी तुलसीदास जी* ने कहा है कि .....
*तुलसी पंक्षी के पिए,* 
*घटे ना सरिता नीर।* 
*दान किए धन ना घटे,* 
*जो सहाय रघुवीर।।*

     गोस्वामी जी ने भी दान करने  के लिए उन लोगों को इंगित किया है जिनके पास धन की नदी बह रही है। कुल्हड़ या कटोरी में जल तो चिड़ियों के पीने से खत्म तो हो ही जाना है। और कुल्हड़ और कटोरी में धन रखने वाले लोगों का धन दान करने पर तब नहीं घटेगा जब तक स्वयं भगवान श्री राम आपकी सहायता नहीं  करेंगे।   
     ईश्वर ने आपको निमित्त बनाकर जिन जिम्मेदारियों के लिए भेजा है उसका इमानदारी से निर्वहन करना ही सच्चा दान है। 

        🌸 *गोपेश* 🌸
         *(सिद्धार्थ नगर)*

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