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बैंकों की कुव्यवस्थाएं-बैंकों के प्रबंधकीयवर्ग को हरेक ऋण-प्रदायगी के लिए

virendra kumar dewangan 18 Aug 2023 आलेख अन्य Banking system 5516 0 Hindi :: हिंदी

बैंक लुटेरे विजय माल्या, नीरव मोदी, मेहुल चौकसी, विक्रम कोठारी और पीएमसी का मामला सुलझा नहीं है कि बैंकिंग क्षेत्र में एक और महाघोटाला सामने आया है। पंजाब एंड महाराष्ट्र सहकारी बैंक में गड़बड़ी को लेकर प्रवर्तन निदेशालय ने मनी लांड्रिंग का मामला दर्ज किया है।
 
इसमें महाराष्ट्र के बड़े नेता, बैंक के प्रबंध निदेशक, नौकरशाह और कंपनियां लपेटे में आए हैं। यह सहकारी क्षेत्र की लूट है। अभी यह देखना दिलचस्प होगा कि कितने बैंकों के अनगिनत लुटेरे और हैं, जो सांठगांठ से गिरफ्त में आने से बचे हुए हैं।

बैंकें अर्थव्यवस्था की रीढ़ होती हैं। बैंकों ने देश को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने; महाजनों व साहूकारों से मुक्ति दिलाने; उच्चवर्ग को व्यावासायिक और औद्योगिक सामर्थ्य प्रदान करने में उल्लेखनीय भूमिका का निर्वहन किया है। मध्यमवर्ग को मकान, मोटरगाड़ी, बच्चों को शिक्षा की सुविधा; किसानों को स्वावलंबी बनाने में बैंकों का अहम योगदान रहा है।

सरकारी योजनाओं को चलाने; पेंशन और तमाम स्कीमों में लोकधन का भुगतान करने और वैश्विक आर्थिक मंदी के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था को संबल प्रदान करने में उनके महती दायित्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
 
तमाम आलोचनाओं के बावजूद बैंकें आज भी लोकधन को सुरक्षित रखने का एकमेव साधन है। बैंकों में नागरिकों और सरकारों का धन न केवल सुरक्षित है, अपितु उसमंे जमाराशि पर ब्याज का भुगतान भी होता रहता है।

ये बैंकों के उजलेपक्ष पक्ष हैं, जो बैंकों के कर्तव्य और आवश्यकता को प्रतिपादित करते हैं। इसके लिए गांवों, कस्बों व छोटे शहरों में कार्यरत कर्मचारियों व शाखा प्रबंधक बधाई के पात्र हैं। 

इन्होंने जनधन समेत लघु बचत के खाता खोलने, सरकारी योजनाओं सहित निराश्रित व वृद्धा पेंशन का भुगतान करने एवं छोटे-छोटे ऋण देकर आमजन की माली हालत सुधारने में अहम दायित्वों का निर्वहन किया है।
 
गांवों, कस्बों व शहरों के ये बैंकिंग कर्मचारी-अधिकारी बैंकिंग पद्धति के वास्तविक खेवनहार हैं। लेकिन, इनकी शिकायत गंभीर है कि बैंक प्रबंधन इनसे केवल काम लेता है। किसी रसूखदार को ऋण देने में अपनी चलाता है। प्रबंधन तानाशाह है। बंधुआ मजदूर की तरह काम करवाता है। किंतु, समय पर वेतन नहीं देता। वेतन आयोग के स्वत्वों का भुगतान करने में हीलाहवाला करता है।

ग्रामीण और कस्बाई इलाकों के ब्रॉंचों में कर्मचारियों की बेहद कमी है। छोटे से छोटे बैंकों में कम से कम तीन स्टाफ होना चाहिए। एक मैनेजर, एक कैशियर और एक लेखापाल। लेकिन बैंक प्रबंधन की आपराधिक लापरवाही के चलते स्वीकृत पदों पर भी भर्तियां नहीं की जाती हैं। 

देश में एक ओर बेरोजगारी सिर चढ़कर बोल रही है, युवा नौकरी के अभाव में दिग्भ्रमित हो रहे हैं, तो दूसरी ओर बैंकों और सरकारी कार्यालयों में भारी पदरिक्तयां हैं। यह प्रबंधन की गैरजिम्मेदारी का नतीजा है? इससे जहां काम का अनावश्यक बोझ बढ़ता है, वहीं काम के बिगड़ने का अंदेशा बना रहता है। कर्मचारी असमय बीमार होकर बूढ़ा हो जाता है।

ऐसी व्यवस्था को बदहाली कहा जाता है। बैंकों की दुर्दशा का आलम यह है कि कहीं केवल एक कर्मचारी है, तो कहीं दो। इससे कार्य का बोझ कितना बड़ जाता है। इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। यही कारण है कि बैंकों के छोटे कर्मचारी देररात तक और अवकाश के दिनों में भी कार्य करते देखे जाते हैं।

इसी तरह बैकिंग प्रणाली का एक स्याहतंत्र और भी है, जो अत्यंत डरावना, विभत्स और लोकधन का लुटेरा है। ये उन गब्बर सिहों, लाखन सिंहों और मलखान सिहों से भी ज्यादा खतरनाक हैं, जो बंदूक का खौफ दिखाकर सरेआम लोगों को लूटते थे। ये बैंकिंग प्रणाली के वे डकैत हैं, जो पद के नशे में चूर राष्ट्रधन पर गुपचुप सेंधमारी करने में लगे रहते हैं। 

यह वह अधिकारसंपन्न तंत्र है, जो केवल हुक्म फरमाता है। दलालों, माफियाओं, धनकुबेरों व रसूखदारों से रिश्वत लेकर अनापशनाप ऋणों की स्वीकृतियां करता है। दूसरें शब्दों में बैंकतंत्र के ये वे बागड़ बिल्ले हैं, जो जिस बागड़ की हिफाजत के लिए तैनात हैं, उसी को तहस-नहस करने पर आमादा हैं।

बैंकें ऋण देने के सामान्य नियम का भी पालन कर लेते, तो उनपर यूं ऊॅंगलियां नहीं उठती। इधर आम आदमी को एक कर्ज रहते दूसरा कर्ज नहीं मिलता; उधर खास आदमी को बैंकें कर्ज पर कर्ज देती रहती हैं। आम आदमी को जमानतदार व नो ड्यूस लगता है। उनको वे तमाम दस्तावेज जुटाने पड़ते हैं, जिसको जुटाते-जुटाते साधारण आदमी की कमर टूट जाती है।

अब रिजर्व बैंक सहकारी बैंकिंग क्षेत्र मंे बड़े बदलाव पर विचार कर रहा है। सहकारी बैंक दोहरे नियमन से गुजरते हैं। ये रिजर्व बैंक के दायरे में तो हैं, लेकिन उन पर वास्तविक नियंत्रण सहकारी समितियों का रहता है। इन समितियों पर नेता काबिज रहते हैं। बंदरबाट उनका एकसूत्रीय कार्यक्रम रहता है।

बैंक की डकैती पर कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए, ताकि कोई भविष्य में लूटकांड करने के पहले सौ बार सोचंे। लोन देने की सारी प्रणाली को पारदर्शी बनाया जाना चाहिए। आडिटतंत्र व निरीक्षणतंत्र को भी जिम्मेदार बनाया जाना चाहिए। अधिकारियों-कर्मचारियों का तबादला भी 3-4 साल में अनिवार्यतः किया जाना चाहिए। कर्मचारी-अधिकारियों की भर्ती भी युद्धस्तर पर होनी चाहिए।

बैंकों के प्रबंधकीयवर्ग को हरेक ऋण-प्रदायगी के लिए जवाबदेह बनाया जाना चाहिए। आरबीआई को बैंकों के बैंक के रूप में तथा सरकार के वित्त मंत्रालय को निदेशक एवं नियंत्रक के रूप में जवाबदेहीपूर्वक कार्य करने की जरूरत है। तभी बैंकों की विश्वसनीयता कायम रह सकती है।
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