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राष्ट्र से बड़ा धर्म नहीं-राष्ट्रीयता की भावना भी एक होती है

virendra kumar dewangan 15 Jul 2023 आलेख समाजिक Nationalist 7426 0 Hindi :: हिंदी

महात्मा गांधी ने एक बार कहा था,‘‘वास्तव में, जितने व्यक्ति होते हैं, उतने उनके धर्म होते हैं, किंतु राष्ट्र एक होता है और राष्ट्रीयता की भावना भी एक होती है। यही भावना किसी राष्ट्र की ताकत होती है।’’

	‘राष्ट्रीयता’ किसी ‘राष्ट्र’ के निवासियों को एकता के सूत्र में बांधनेवाली अलौकिक व भावनात्मक ताकत होती है। राष्ट्रीयता जाति, भाषा, पंथ, मजहब, परंपराओं, संस्कृतियों के साथ एक निश्चित भौगोलिक सीमा में रहनेवाले सभी नागरिकों के लिए समान होती है।
 
राष्ट्रीयता की इसी विस्मयकारी भावना के वशीभूत पहले विश्वयुद्ध में तबाह जर्मनी चंद सालों में फिर उठ खड़ा हुआ था और दुनिया को द्वितीय महासंग्राम के लिए ललकारने लगा था। यद्यपि उसे द्वितीय महायुद्ध में भी पराजय का मुंह देखना पड़ा, तथापि चंद वर्षों में फिर से आर्थिक शक्तिसंपन्न राष्ट्र बनना राष्ट्रवाद का अद्वितीय दृष्टांत है।
 
दूसरे महासमर के अंत में दो-दो एटमीवार से तबाह जापान राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत होकर पुनः सामर्थ्यवान राष्ट्र बन गया है। लंबी गुलामी से उबरकर चीन जैसा महाकाय देश तकनीकी व सैन्यशक्ति में समकालीन आजाद मुल्कों से आगे निकल गया है और दुनियाभर में औद्योगिक व सैन्य केंद्र स्थापित कर लिया है। 

इसके विपरीत राष्ट्रीयता जब विलुप्त होने लगती है, या कमजोर पड़ जाती है, तब विशाल साम्राज्य का भी लोप हो जाता है। जैसा ग्रेट ब्रिटेन के साथ द्वितीय महायुद्ध के आसपास हुआ। दुनिया में सूर्यास्त न होनेवाला उसका विशाल साम्राज्य ताश के पत्तों की माफिक भरभरा कर ढह गया। आज वह एक देश के रूप में सिमट कर रह गया है। कई प्राचीन एवं शक्तिशाली साम्राज्यों का भी यही हाल हुआ है।

राष्ट्रीयता की इसी उद्दात्त भावना के चलते व्यक्ति स्वार्थ से ऊपर उठकर परमार्थ अर्थात राष्ट्रसेवा में जुट जाता है और राष्ट्र का निर्माण करता है। राष्ट्रीयता की भावना से वस्तुतः एकता का निर्माण होता है, जो अनेकता के बावजूद राष्ट्र को बांधे रखता है, उसको एक धागे में पिरोकर रखता है।

	पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी राष्ट्रीयता को यूं परिभाषित किया है,‘‘राष्ट्रीयता की भावना से जनता के ह्दय में एकता, संगठन व संशक्ति की भावना, एक-समान नागरिकता की अनुभूति तथा राष्ट्र के प्रति निष्ठा की भावना का विकास होता है।’’

	इसके विपरीत ‘धर्म’ एक आस्था है, जो व्यक्ति की अपनी निजी होती है। इसलिए कहा जाता है कि व्यक्ति किसी धर्म को मानने, उस पर आस्था रखने, किसी पूजा पद्धति को अपनाने के लिए स्वतत्र है।
 
भारत जैसे ‘धर्मनिरपेक्ष’ देश में उसके सभी नागरिकों को समान अधिकार संविधान से प्रदत्त है। लेकिन, जब धर्म समुदाय आधारित होने लगता है, तब संप्रदाय कहलाने लगता है। एक समुदाय के लोग जब दूसरे समुदाय के लोगों को शक व हेय की दृष्टि से देखने लगते हैं, तो गाहे-बगाहे सांप्रदायिकता को बढ़ावा मिलता है।
 
किसी देश में जो सांप्रदायिक उपद्रव व दंगे होते हैं और विधर्मियों को मारे-काटे जाते हैं या उनकी चल-अचल संपत्तियों को नुकसान पहुंचाए जाते हैं, उसके मूल में ‘धर्म’ का यही विकृत रूप दृष्टिगोचर होता है।

फिर चाहे यूरोप, रूस, अमेरिका, इजराइल जैसे मुल्क हों या भारत जैसा बहुधर्मी और बहुभाषिक मुल्क; सब दूर धर्म का यही बिगड़ा स्वरूप सामने आता है, जो राष्ट्रीयता की भावना को झकझोर कर रख देता है।

	इसके बावजूद, धर्म अपने-आप में ईश्वर का दिया हुआ अद्वितीय वरदान है। यह लोककल्याणकारी है। इसलिए मानवजीवन को अति प्रिय है। इससे जीवन को शांति, प्रेरणा और संजीवनी मिलती है। 

लेकिन, जब मानव-धर्म के वास्तविक स्वरूप का परित्याग कर राष्ट्र का विस्मरण कर दिया जाता है, तब मतिभ्रम हो जाता है, जो धर्मांतरण जैसे ओछे कृत्य में दुरूपयोग किया जाता है। यही कुप्रवृति राष्ट्र के लिए नुकसानदेह साबित होती है।

	इसीलिए कहा जाता है कि धर्म से बड़ा राष्ट्र और राष्ट्रीयता की भावना होती है, जो देशप्रेम व देशभक्ति में अभिव्यंजित होती है। यह अपनी जन्मभूमि के प्रति आदरभाव को रेखांकित करती है और स्वदेशवासियों से परस्पर प्रेम की भावना रखती है।
 
जिस भूमि पर हमारा जन्म हुआ है, वह जन्मभूमि अपनी माता कहलाती है। वह हमें वात्सल्य भाव से पालती-पोसती है। उसका खाद व पानी हम ग्रहण करते हैं और बड़े होते हैं। उसी भूमि पर हम पेशा, कारोबार या सेवा कर अपना व अपने परिजनों का भरणपोषण करते हैं। 

उसका गौरव स्वर्ग व धर्म से कम नहीं, अपितु अधिक गौरवपूर्ण होता है। अतः धरती माता धर्म से किसी दृष्टि में भी कमतर नहीं होती।

जो देशभक्त होता है, वह जन्मधात्री धरती मां की पूजा करता है। जिस तरह संस्कारी इंसान अपने माता-पिता की सेवा करता है, उसका उपकार कभी नहीं भूलता, उसी तरह जिस धरती पर हमारा जन्म हुआ है, हम उसके ऋणी हुआ करते हैं।
 
इस ऋण से तभी उऋण हुआ जाता है, जब हम राष्ट्र के लिए जीते और मरते हैं। इसलिए तो कहा जाता है,‘‘जननी जन्मभूमिश्च स्वार्गादपि गरीयसी’’

देशसेवा अपने राष्ट्र के भाइयों की सेवा है। यह समधर्मी भाइयों की सेवा से उद्दात्त और विशाल भावना लिए हुए है। किसी ने खूब कहा है,‘‘जिसको जन्मभूमि का मान रहेगा, उसे देश के भाइयों का ध्यान रहेगा।’’
 
कोरोनावायरस के फैलाव के संदर्भ में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह स्वदेशवासियों का परम कर्तव्य है कि हम केेवल अपना ही नहीं, अपितु समस्त देशवासियों के कल्याण के निमित्त कोई ऐसा कार्य न करें, जिससे इस जानलेवा वायरस का विस्तार व प्रसार होने लगे।

स्काट भी इसी कथन की पुष्टि करते हैं,‘‘क्या कोई ऐसा भी मनुष्य है, जिसकी आत्मा इतनी मर गई हो कि उसने यह कभी नहीं कहा हो-यह मेरा स्वदेश है।’’

इसलिए, किसी को ‘वंदे मातरम्’, ‘भारत माता की जय’ ‘जब तक सूरज-चांद रहेगा, भारत तेरा नाम रहेगा’ और ‘हिदुस्तान अमर रहे’ ‘भारतीयता जीवित रहे’ कहने से परहेज कैसा?

विचारणीय यह भी कि जहां स्वमाता हमें नौ महीने गर्भ में धारण करती है, वहीं जन्मभूमि हमें जीवनभर पालती-पोसती है। माता अपना दूध पिलाकर हमारा पोषण करती है, तो मातृभूमि अन्न-जल से लालनपालन। 

जन्मदात्री मां शिक्षा से हमें इंसानों जैसा बनाती है, तो भारत मां इंसानियत के पाठ पढ़ाती है। यदि जन्म-भूमि, जननी मां से अधिक गौरवशालिनी है, तो फिर राष्ट्र, किसी धर्म, पंथ, मजहब से कमतर कैसे हो सकता है?
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