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स्थानीय निकायों का नकारापन-पैसों का बंदरबाट कर अपना घर भरना

virendra kumar dewangan 11 Aug 2023 आलेख दुःखद Local Body 5232 0 Hindi :: हिंदी

छत्तीसगढ़ सरकार का आंकड़ा बताता है कि प्रदेश में एक साल में 128 लोगों की जाने सड़क दुर्घटना में इसीलिए चली गई; क्योंकि राज्य की सड़कों में बेसहारा पशुओं से टकराकर ज्यादातर बाइक सवारों की बेवक्त मौत हो गई। इसमें भी नवयुवाओं की संख्या सर्वाधिक है। 

आखिर इन नौजवानों की मौत का जिम्मेदार कौन है? राज्यभर में आवारा मवेशियों का जमावड़ा सड़कों पर रहता है और स्थानीय निकायें केवल शोशेबाजी व आंकड़ेबाजी में लगी रहती हैं। जबकि कई साल से राज्य में रोका-छेका अभियान चलाया जा रहा है, जो कहां चल रहा है, स्थानीय निकायों के कर्ता-घर्ताओं तक को पता नहीं रहता?

स्थिति यह है कि राज्य में कहीं भी चले जाइए। सब मार्गों पर चाहे वे स्थानीय निकायों की हों, पीडब्ल्यूडी की हों, राजमागों की हों या हों राष्ट्रीय राजमार्गों की; सब दूर सड़कों पर ऊंघते, सोते-बैठते व खड़े पशुओं का जमावड़ा नजर आता है।

यहां तक कि पचासों मवेशी बसों व ट्रकों की चपेट में आ चुके हैं और मौत को प्राप्त हो चुके हैं। दरअसल, यह स्थानीय निकायों की लापरवाही और हद दर्जे का निकम्मापन है, जिसके वशीभूत वे मवेशी मालिकों पर कोई कार्रवाई नहीं करते और हालात जस-का-तस बना रहता है।
 
जबकि यहां होना यह चाहिए कि बेसहारा मवेशियों की पहचान की जाती, उन पर कालर आईडी लगाई जाती और उन्हें कांजी हाउस या गोठानों में रखा जाता। साथ ही इनके मालिकों पर इतना भारी-भरकम जुर्माना लगाया जाता कि जुर्माना पटाने में उनको नानी याद आती। तभी हालात में सुधार होता। 

लेकिन, जहां वोटों की राजनीति हावी हो, वहां वोट बैंक छिटकने के भय से जुर्माना न लगाकर केवल चेतावनी देकर छोड़ दी जाती हो, जिसका परिणाम यही होता है कि मवेशी फिर सड़कों पर पहुंचा दिए जाते हैं।

बावजूद इसके, छग हाईकोर्ट की कड़ाई और मुख्य सचिव की डेली मानिटरिंग के बावजूद स्थिति में कोई खास सुधार परिलक्षित  नहीं हुआ है।

यही स्थिति आवारा कुत्तों की है। अभी हाल में राज्य की राजधानी के गुढ़ियारी में आवारा कुत्तों के द्वारा चार मासूम बच्चों को नोचे जाने की घटना सामने आई है। इसके पूर्व भी कुत्तों ने नोच-नोच कर कई अबोध बच्चों की जान ले ली है। 

राज्य में जिधर भी चले जाइए, उधर खासकर रात में आवारा देशी कुत्तों का आतंक मचा रहता है। वे झुंड-के-झुंठ खड़े-बैठे रहते हैं और राहगीरों व मुसाफिरों और खासकर कमउम्र के बच्चों को अपना शिकार बना लेते हैं। उन्हें लहूलुहान करते हैं और उनके खाने-पीने की वस्तुएं छीन लेते हैं।

इससे डरकर वे लोग, जो रात को ड्यूटी करते हैं और देररात तक घर पहुंचते हैं, उन्होंने रात को घर जाना ही बंद कर दिया है। वे रात आफिस में बिताने लगे हैं और सुबह घर पहंुचते हैं।

जबकि इनकी धरपकड़ संजीदगी से होनी चाहिए, इनका बधियाकरण या नलबंदी होनी चाहिए और उन्हें सेल्टर होमों में रखा जाना चाहिए। तिस पर तुर्रा यह कि सरकारी अस्पतालों में एंटी रेबीज के टीकों का टोटा रहता है, जिससे निजी अस्पतालों की चांदी हो जाती है और वे मनमाना लूटखसोट करते हैं।

मच्छरों पर नियंत्रण स्थापित करने का जिम्मा भी स्थानीय निकायों का है, लेकिन नालियां बजबजाती रहती हैं; जहां मच्छर अपना कुनबा बढ़ाते रहते हैं और मलेरिया, डेंगू व चिकनगुनिया परोसते रहते हैं। अभी देश को डेंगू का जो डंक लगा हुआ है, उसके पीछे स्थानीय निकायों की भारी बेपरवाही है, जिसने मच्छरों की आबादी को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है।

इतना ही नहीं, जो कचरे स्थानीय निकायें नालियों से निकलवाती हैं, वे दिनों-महीनों नाली किनारे पड़े रहते हैं और धीरे-धीरे फिर नालियों मे ंसमा जाते हैं। तब ऐसी अधूरी नाली सफाई का क्या औचित्य? क्या केवल खानापूरी के लिए ऐसा किया जाता है?

ये सारे हालात देश के सभी राज्यों की लगभग एक जैसी है, कहीं कम है, तो कहीं ज्यादा, पर महा नगरपालिकाएं, नगरनिगमें, नगरपालिकाएं और नगर परिषदें एक-सी परेशानी स्थानीय नागरिकों व वाशिदों को परोस रहे हैं। उन्हें जनता की इन परेशानियों से कोई वास्ता और सरोकार नहीं है। 

मतलब है, तो ओछी व टुच्ची राजनीति करना और शासन के पैसों का बंदरबाट कर अपना घर भरना। जबकि स्थानीय निकायों में जन प्रतिनिधियों को इसीलिए बिठाया गया है कि वे जनता से चुनकर आएंगे और जमीनी हकीकत को जानते हुए जनता की परेशानी समझेंगे और उन्हें उससे मुक्ति दिलाकर उनका जीवन सुखमय बनाएंगे। लेकिन, यहां तो उल्टी गंगा बह रही है।
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