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बुढ़ापे से मृत्यु की ओर

DIGVIJAY NATH DUBEY 24 May 2023 कविताएँ दुःखद #दिग्दर्शन 7490 1 5 Hindi :: हिंदी

एक सफेद धोती को लपेटे हुए 
जिसकी सफेदी क्षीण हो चुकी थी 
ऊपर का तन नंगा ही छोड़ दिया 
एक दंड को हाथ में थामे हुए 
चल रहा था डगमगाते हुए 
उसके चलने की चाल देखकर 
एक डर सा लग रहा था 
कहीं इस पथरीले सड़कों पर 
गिर न पड़े कोई ठोकर खाकर 
बिना कोई उम्मीद लिए 
वो बस चल रहा था 
बुढ़ापे से मृत्यु की ओर

शरीर थी हड्डियों का ढांचा 
चाहो तो गिन सकते हो 
मालूम पड़ रहा था 
किसी ने कंबल रूपी खाल 
ओढ़ा दी हो इस हड्डियों के ढांचे को
ये खाल कब तक उसका साथ देगी 
इसकी कोई जानकारी नहीं थी 
दंत नेत्र की तेजी 
अब गायब ही हो चुकी थी 
लग रहा था उसने लोगो को
अब सुनना ही बंद कर दिया था 
बिना कोई उम्मीद लिए
वो बस चल रहा था 
बुढ़ापे से मृत्यु की ओर 

दुनिया की अब परवाह नही थी 
घर वालो की अब चाह नहीं थी 
एक ही उम्मीद थी जो 
मृत्यु बुला नहीं रही थी अपने पास 
यूं तड़पने के लिए छोड़ दी थी 
ये तड़पन जब तक देगी 
इसका पता नही था 
जो कभी किसी के सामने 
सलाम को नही झुका था 
आज कमर से सदा के लिए 
झुक गया था जैसे मानो 
अब सभी का आदर करने लगा हो 
बिना कोई उम्मीद लिए 
वो बस चल रहा था 
बुढ़ापे से मृत्यु को ओर

कुछ ख्वाहिशें जो 
कभी नही पूरी हो सकती
पाल रखी होती हैं 
हर एक जीव आत्मा ने 
ऐसी ही कुछ ख्वाहिशें होंगी 
उस ढांचे की जो रह रह के 
नेत्रों से गिरा देता है 
वो झरने जो अब सूखकर 
समुद्र से दरिया बन गए थे 
नेत्र थे जो छुप गए थे अंदर 
मानो दुनिया से बचकर 
छुपा लिया हो अपने आप को 
एक दंड ही साथी बनकर 
खड़ा था हर पल उसके साथ 
बिना कोई उम्मीद लिए 
वो बस चल रहा था 
बुढ़ापे से मृत्यु की ओर ।।

दिग्दर्शन !

Comments & Reviews

DIGVIJAY NATH DUBEY
DIGVIJAY NATH DUBEY Very nice

11 months ago

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