शास्त्री-जयंती पर विशेषःः
शास्त्रीजी का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को उप्र के मुगलसराय में हुआ था। वे 9 जून 1964 से 11 जनवरी 1966 तक लगभग 18 माह भारत के दूसरे प्रधानमंत्री रहे। तब भारत के राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन थे। नेहरूजी के असामयिक देहांवसान के बाद कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहे गुलजारीलाल नंदा से उन्हें प्रधानमंत्री का कार्यभार मिला था।
लाल बहादुर शास्त्री ने 11 जून 1964 को अपने पहले रेडियो प्रसारण में ओजस्वी भाषण इस प्रकार दिया था,‘‘हर राष्ट्र के जीवन में एक समय आता है, जब वह इतिहास के क्रास-रोड पर खड़ा होता है। तभी उसे चुनना चाहिए कि उसे किस रास्ते पर जाना है। हमारे लिए कोई कठिनाई या झिझक की आवश्यकता नहीं है, कोई दाईं या बाईं ओर नहीं है। हमारा रास्ता एकदम सीधा और सपाट है। सभी के लिए स्वतंत्रता और समृद्धि के साथ घर में एक समाजवादी लोकतंत्र का निर्माण और सभी देशों के साथ विश्वशांति और दोस्ती का रखरखाव।’’
जब शास्त्रीजी प्रधानमंत्री बने, तब देश भीषण खाद्य संकट से गुजर रहा था। इससे देश में त्राहि-त्राहि मची हुई थी। एक ओर खाद्यान्न का अभाव था, दूसरी ओर जमाखोरी से खाद्यान्न की कीमत बेतहाशा बढ़ी हुई थी।
तभी उन्होंने अपने पहले संवाददाता सम्मेलन में कहा था,‘‘उनकी पहली प्राथमिकता खाद्यान्न मूल्यों को बढ़ने से रोकना है और वे ऐसा करने में सफल भी हो रहे हैं। उनके क्रियाकलाप सैद्धांतिक न होकर पूरी तरह से व्यावहारिक और जनता की आवश्यकताओं के अनुरूप है।’’
वे विनम्र, दृढ़ संकल्पी, सहिष्णु एवं प्रतिभाशाली थे। सबसे बड़ी बात उनकी छवि साफ-सुथरी थी। उनमें कार्यक्षमता व चीजों को समझने का कौशल था। वे दूरदर्शी राजनीतिज्ञ थे।
उन्होंने अपने गुरु महात्मा गांधी के लहजे में एक बार दृढ़तापूर्वक कहा था,‘‘मेहनत प्रार्थना करने के समान है।’’ वे महात्मा गांधी की विचारधारा को माननेवाले सच्चे देशभक्त और पोषक राजनीतिज्ञ थे।
इस मायने में वे देश के पहले व अंतिम प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने गांधीजी के विचारों को न केवल आत्मसात किया था, अपितु उसे अपने राजनीतिक जीवन में अपनाया भी था।
उनकी सादगीपूर्ण जीवनशैली इसका ही प्रमाण है। वे जैसा बोलते थे, वैसा करते भी थे। उनकी कथनी और करनी में लेशमात्र भी अंतर नहीं था। गांधीवाद भी इसी बुनियाद पर अवलंबित है।
गांधीजी के सच्चे अनुयायी
शास्त्रीजी, गांधीजी के सच्चे अनुयायियों में-से एक थे। सादगी, सच्चाई व ईमानदारी उनमें कूट-कूटकर भरी हुई थी। सच पूछो तो गांधीजी के विरासत के वे एकमात्र व अंतिम प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने गांधीवाद को न केवल अपने जीवन में उतारा था, अपितु प्रधानमंत्री बनने के बाद भी इसी विचारधारा का पोषण किया था।
वे गांधीवादी विचारधारा को सिर्फ मानते ही नहीं थे, वरन् उसे आजीवन अपनाते भी रहे। उनमें ढोंग व पाखंड लेशमात्र भी नहीं था। यद्यपि उनके जीवन पर पुरुषोत्तमदास टंडन, गोविंदवल्लभ पंत व जवाहरलाल नेहरू का भी प्रभाव पड़ा था, तथापि वे गांधीजी से सर्वाधिक प्रभावित व्यक्तित्वों में-से थे।
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