DIGVIJAY NATH DUBEY 24 May 2023 कविताएँ समाजिक #दिग्दर्शन 16490 0 Hindi :: हिंदी
कड़क कड़क यूं उमड़ घुमड़ के काले मेघ घटा पर छाए चमक चमक के गरज गरज के चपला ने है राग सजाए छाया है एक चद्दर सा सूरज की लाली घेर लिए है उसकी शक्ति का प्रतिद्वंदी आज तपन से बैर लिए है अंधेरा इतना छाया की निशा दिवा को कैद कर लिया चमक चमक के तड़ित बेचारी ढूंढ रही की कहा रख लिया एकाएक लगी पश्चिम से समीर की एक टोली दहाड़ने बादल के पानी से पहले आया हूं मैं जहां बहारने ले आया वो अपने साथ धूल खंड की धुधुर आंधी छिप जाओ अब जहां भी हो तुम नही मिलेगी अब आजादी गिरा दिया टहनी टहनी को जिसने साथ दिया न उसका उड़ा उड़ा पत्ती पत्ती को दिखा रही साहस का झोका धीरे धीरे शांत हो गई वो सरसर फरफर की वाणी पर ऊपर से गर्जन की तो अभी किसी ने हार न मानी टप टप टप यूं लगा टपकने धरती अपनी महक उठी है उठो जरा और बाहर देखो शायद कुछ बरसात हुई है भिगा दो सारे तपन ज्वलन को ठंडक प्रेम का अब दिखलाओ द्वेष तृषा और अहंकार को बूंद बूंद से धुलते जाओ बरस बरस के ठंड हुआ मन ठंड हुई मानुष की माया साफ हुई अब स्वच्छ हुई अब ये है बादल की लघु छाया । दिग्दर्शन !