DINESH KUMAR KEER 20 Jan 2024 कविताएँ समाजिक 6022 0 Hindi :: हिंदी
हाँ, मैंने गांव को इतने करीब से जिया है, खेतों में पीले सरसों के फूलों को सौंधी खुशबु के साथ खिलते देखा, सर्दी मे कोहरे की सफेद चादर की धुंध से लोगों की छिपत हुए देखा, हाँ, मैंने गांव को इतने करीब से जिया है। हाँ, मैंने गांव को इतने करीब से जिया है। खेतों से आती हुयी सीधी ताजी - ताजी कच्ची सब्जी की महक, खलिहानों मे गन्नों से निकलता ताजगी भरा रस और ताजा गुड़ का स्वाद चखा, हाँ, मैंने गांव को इतने करीब से जिया है। हाँ, मैंने गांव को इतने करीब से जिया है। लकड़ी व मिट्टी से बने कच्चे मकानों और मन के सच्चे लोगों को आंगन को मिट्टी और गोबर से लीप कर त्योहारों की मिठाईया बनाते हुए देखा, बिना मिलावट का मवेशियों से निकला शुद्ध दूध और दही का असली स्वाद चखा, हाँ, मैंने गांव को इतने करीब से जिया है। हाँ, मैंने गांव को इतने करीब से जिया है। खेत - खलिहानों को जाते लोगों के चहरों पर एक अजीब सी मुस्कान की झलक देखी है, शहरीकरण के बिना, चहल - पहल और ऐशो - आराम से कोसों दूर सादगी से भरी हुए एक जिन्दगीं को जिया है, हाँ, मैंने गांव को इतने करीब से जिया है। हाँ, मैंने गांव को इतने करीब से जिया है। डाई नदी के पानी का कल - कल करना और बागो में पंछियों का चहचहाना सुना है, प्रकृति की प्राकृतिक सुंदरता मे सादगीभरा जीवन जिया है, हाँ, मैंने गांव को इतने करीब से जिया है। हाँ, मैंने गांव को इतने करीब से जिया है। खेतों में काम कर रही माता - बहनों और ताऊ - काका के मुख पर स्वाभिमान देखा है, ना लाखों, ना करोड़ों की दौलत की चाहत से दूर मेहनत कर सुकून से जीते हुए देखा है, हाँ, मैंने गांव को इतने करीब से जिया है।