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जीवन की ठोकर- कोई न देखें मेरे अंदर कितने घावों से भरा हूँ

Raysingh Madansingh Rauthan 11 Jan 2024 कविताएँ समाजिक जीवन में अनेक ठोकर खाने के बाद शीश उठाकर जीने की कोशिश 8274 0 Hindi :: हिंदी

"जीवन की ठोकर"

कोई न देखें मेरे अंदर
कितने घावों से भरा हूँ

कितनी तन्हाई है मेरे अंदर
कितने गांठों से बंधा हूँ

जीवन के ठोकरों ने
अनेक घाव बना दिए

नंगे पाँव चलकर तो
तलवे छलनी बना दिए

सफलता की सीढ़ी पकड़कर
निचे. गिराने सब लगे थे

जब गिरता जमीन पर मै
दूर हो जाते सब देखकर 

फिर भी कोशिश करता रहता
ऊपर उठने की आहे भरता

न किसी का सहारा होता
फिर भी उठाकर चलता रहता

जब उदास रहता मन
शीतल पड़ जाता ये तन

अपने आपको पहचानो
हर बार यही कहता मन

तन्हाई में रहता जब मन
गिनता अंदर के घावों को

कितनी ठोकरें लगी तन को
आगे बढ़ने को कहता मन

अपमानों का घूंट पीकर
घुटन भरा जीवन जी कर

अब न खाऊंगा मैं ठोकर
सीख गया हूँ दुनिया पढ़कर

कितने अरमान पाले मन में
पूरा करना खायी कसमें

न कभी अब खायेगा ठोकर
जियेगा अपना शीष उठाकर

रायसिंह मदनसिंह रौथाण (अज्ञात)

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