Join Us:
20 मई स्पेशल -इंटरनेट पर कविता कहानी और लेख लिखकर पैसे कमाएं - आपके लिए सबसे बढ़िया मौका साहित्य लाइव की वेबसाइट हुई और अधिक बेहतरीन और एडवांस साहित्य लाइव पर किसी भी तकनीकी सहयोग या अन्य समस्याओं के लिए सम्पर्क करें

सिस्टम की दगाबाजी-देश के सिस्टम की दगाबाजी

virendra kumar dewangan 01 Aug 2023 आलेख समाजिक System 7989 0 Hindi :: हिंदी

रेलवे मंत्रालय ने कोरोनाकाल से पहले दी जाने वाली 58 वर्ष से अधिक आयु की महिलाओं को 50 प्रतिशत और 60 वर्ष से ज्यादा उम्र वाले पुरुषों को 40 फीसद रेल किराये में छूट वापस लेकर जैसे बहुत बड़ा तीर मार लिया है।

भारतीय रेलों में यात्रा करने वाले ये वे गरीबजन, निम्न मध्यवर्गीय वृद्धजन व छोटे पदों पर रिटायर्डजन हैं, जो अपने जीवन के अंतिम काल में सरकारी छूट के वास्तविक हकदार होने चाहिए थे, पर सरकार ने उन्हें छूट देने के काबिल नहीं समझा। 

जबकि उन रिटायर्ड सांसदों की रेल यात्रा छूट पर कैंची चलाना जरूरी नहीं समझा, जो टैक्सपेयर की गाढ़ी कमाई से पद में रहते हुए मोटा वेतन व भत्ता लेते हैं और रिटायर होने के बाद सरकारी दामाद बन जाते हैं। 

यक्ष प्रश्न यह कि सरकार की ऐसी दोगली अर्थनीति से क्या सरकारी धन की हानि नहीं होती?

गर रेलवे पर पड़नेवाले वित्तीय बोझ के चलते बुजुर्गों को दी जाने वाली छूट को वापस लेने की दरकार थी, तो पदनिवृत्त सांसदों को किस बिला पर छूट देना बरकरार रखा गया? क्या इससे रेलवे को घाटा नहीं होगा?

जो अग्निवीर चार साल तक अपनी जान जोखिम में डालने के बावजूद जिंदा बचे रहेंगे, उन्हें सेवा से बेदखल कर मासिक पेंशन देने से सरकार पर आर्थिक बोझ पड़ता है, लेकिन फखत पांच साल सांसद और विधायक रहकर सड़क से सदन तक हंगामेबाजी व नौटंकीबाजी करने वालों को पेंशन देने से सरकारों को आर्थिक लाभ होता है। वाह री अंधी-बहरी सरकार! तेरा कोई जवाब नहीं!!

यह एक कटु सत्य है कि सांसदों व विधायकों का वेतनभत्ता बढ़ाने के लिए जिरह की जरूरत नहीं पड़ती। वे चाहें तो साल में दो-दो बार इसे बेशर्मी से बढ़ा सकते हैं।

हमारे गणतंत्र में यही एकमेव मामला है, जिसमें पक्ष-विपक्ष में गजब का एका देखा जाता है और फटाफट निर्णय हो जाता है। बाकी समय मे ंतो केवल हंगामा और हो हल्ला मचा रहता है।
  
जबकि केंद्र व राज्यों में कर्मचारियों व अधिकारियों के महंगाई भत्ता में असमानता को दूर करने की मांग जनवरी 2019 से अटकी पड़ी है। उस पर सम्यक ढंग से विचार कर निर्णय लेने की फुर्सत किसी को नहीं है।

देश के प्रायः सभी राज्यों में आलाअफसरों व छोटे अधिकारियों-कर्मचारियों के महंगाई भत्ता में भारी अंतर है। वहीं, स्थानीय निकायों के कर्मचारियों को छठे वेतनमान के अनुरूप महंगाई भत्ता दिया जा रहा है। जबकि सरकारी कर्मचारियों को 7वें वेतनमान के अनुरूप महंगाई भत्ता दिया जाता है। आखिर कर्मचारियों-कर्मचारियों में भेद क्यों?

यही नहीं, उच्चाधिकारियों को 20 फीसद व राज्य के अधिकारियों-कर्मचारियों को 10 फीसद मकान किराया भत्ता दिया जाता है। आखिर ऐसी विसंगतियांे पर फैसला जल्द क्यों नहीं किया जाता?
यह सिस्टम उन वयोवृद्ध पेंशनरों को भी धोखा देता है, जो ताउम्र सरकारी सेवा में अपना जीवन खपा देते हैं। 

केंद्र के द्वारा बढ़ाए गए डीए के समकक्ष तत्काल डीआर न बढ़ा कर सेवानिवृत्तों को तरसा-तरसा कर डीआर बढ़ाया जाता है. जबकि पूर्व सांसदों व विधायकों के मामले में बढ़ोतरी चुटकी बजाते कर लिया जाता है।

यही नहीं, दैनिक कर्मी, संविदाकर्मी, शिक्षामित्र आदि साढ़े 33 साल से अधिक जीवन खपाने के बाद भी पेंशन का हक नहीं रखते। जबकि पांच साल जनप्रतिनिधि बनने से जीवनभर पेशन का हक मिल जाता है।

यही सूरतेहाल तमाम राज्यों का है, जो कर्मनिष्ठ कर्मचारियों के साथ धोखा है?

आखिर हमारा सिस्टम हमारे ही उन युवजनों व आमजनों को धोखा क्यों देता है, जिनके लिए यह सिस्टम बना है। जबकि लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा स्थापित शासनप्रणाली है।

लाख टके का सवाल यह कि जब खर्च में कटौती की बारी आती है, तब आमजनों को नकार देना और खासजनों के फायदों को बरकरार रखना क्या लोकशाही कहलाता है? क्या इससे लोकतंात्रिक सिस्टम की दगाबाजी जाहिर नहीं होती?

श्रीलंका जैसे आर्थिक संकटों से देश-प्रदेश को बचना-बचाना है, तो सभी हुक्मरानों को समग्रता में सोच-विचार कर अपनी दोरंगी नीतियों में तब्दीली लानी चाहिए।

देश के सिस्टम की ऐसी दगाबाजी, जो भेदभावपरक है और जिसने कई मोर्चों पर कइयों को ठगा है। पढ़िए दगाबाजियों की वो दास्तान, जो आंखें खोलनेवाला है।

ऐसा क्यों है कि नेता दो-दो सीट पर एक साथ चुनाव लड़ कर सरकारी धन, समय व श्रम का दुरूपयोग करने के लिए स्वतंत्र है, पर आमजन दो जगहों पर वोट नहीं कर सकता।
 
सिस्टम की ऐसी धोखेबाजी क्यों है कि मतदाता जेल में निरूद्ध है, तो वह वोट नहीं कर सकता, पर नेता गंभीतरतम अपराध में भी सजा काटते हुए जेल से प्रत्याशी बन सकता है।

कोई शख्स एक बार जेल चला जाता है, तो उसे उम्रभर शासकीय नौकरी नसीब नहीं होती। पर, नेता चाहे जितनी मर्तबा जेल चला जाए, फिर हत्या, बलात्कार, डकैती, लूटमार या आर्थिक अपराध के मामले में ही क्यो न हो, वह सांसद, विधायक ही नहीं, मंत्री तक बन सकता है?

सरकारी या निजी क्षेत्र की नौकरी पाने के लिए युवाओं का पढ़ा-लिखा होना जरूरी माना जाता है, लेकिन नेता अनपढ-़गंवार हो, तो पर भी वह शिक्षामंत्री, वित्तमंत्री या आबकारीमंत्री बन जाता है।

देश का युवा गर लूला-लंगड़ा, अंधा-बहरा है, तो वह सैनिक नहीं बन सकता, लेकिन नेता दिव्यांग होने के बावजूद रक्षामंत्री बन सकता है।
				--00--
अनुरोध है कि पढ़ने के उपरांत रचना को लाइक, कमेंट व शेयर करना मत भूलिए।

Comments & Reviews

Post a comment

Login to post a comment!

Related Articles

किसी भी व्यक्ति को जिंदगी में खुशहाल रहना है तो अपनी नजरिया , विचार व्यव्हार को बदलना जरुरी है ! जैसे -धर्य , नजरिया ,सहनशीलता ,ईमानदारी read more >>
Join Us: