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माँ

Alfaaz Hassan 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक 105373 0 Hindi :: हिंदी

माँ जन्नत है माँ रहमत है जिसकी ममता में सागर सी गहराई है जिसने माँ को ठुकरा या उसने जन्नत भी ठुकराई है 
उगली पकड कर तेरी चलना तुझको सिखलाया। 
अच्छाबुरा क्या होता है ये तुझको बतलाया
ठोकर खाई जब जब तुने रो रो के तुझे सहलाया ।
खुद खाई ठोकरे दर बदर तुझको इन्सान बनाया 
अब बोझ बनी है क्यो तुम पर रखकर मौत सिरहाने जिसने दुनिया तुझे दिखाई है 
जिसने माँ को ठुकरा या उसने जन्नत भी ठुकराई है 

जो सोई चाहे फुटपाथ पे खुद बिस्तर पर तुझे सुलाया 
खुब मालिशे कर कर के जिसने तुझको नहलाया है 
आई नींद जब तुझको तो गाके लोरी सुलाया है 
उसकी सारी जिंदगी की बस 
तू ही पूंजी कमाई है। 

जिसने माँ को ठुकरा या उसने जन्नत भी ठुकराई है। 
ये वक़्त ने जब दोहराया है माँ तेरी जगह और तू माँ की जगह जब आया है लाचार हुई उस माँ के लिए तुने अच्छा फर्ज निभाया है खाने को ठोकरे दर दर की 
किस मोड़ पे तू ले आया है। 
जो जीती थी अपनी शर्तों पर आज क्यो वो तेरी मोहताज हुई भुखी प्यासी रहते रहते क्यो दबी सी ईक आवाज हुई। 
उम्मीद निगाहें रखतीं है अब भी तेरे आने की ना जाने फ़िर भी मिलती क्यो इन आखों को रुसवाई है 
जिसने माँ को ठुकरा या उसने जन्नत भी ठुकराई है। 



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