Shreyansh kumar jain 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक 50000 49526 0 Hindi :: हिंदी
मजबूर हूँ साहाब इन हालातों के दोर में, दो वक्त की रोटी मिल जाएँ इस लिए ही भटकता हूँ इस संसार की भाग दौड़ में, मेरा कौन है इस दुनिया में यही सोचता हूँ हर पल में, दुनिया कहती हैं कि मजदूर हूँ मैं, महल बनाता हूँ लोगों के लेकिन उन में खुद नहीं सो पाता हूँ मैं, पटरी हो या सडक किनारा इन्हीं को अपना आशियाना समझकर सो जाता हूँ मैं, पता नहीं रह पाता है मुझको नींद कब आ जाती है दुनिया के बोझ ढोने वाली दिन भर की इस थकान मैं, कभी शहजादा की गाडी से तो कभी ट्रेन से मौत की नींद सो जाता हूँ मैं, दुनिया कहती हैं कि मजदूर हूँ मैं। किसी को कुछ ना कहता हूँ मैं, ना सरकार से कुछ चाहता हूँ मैं, मेहनत का कोई काम मिल जाएँ इन हाथों को उसी से दो वक्त की रोटी चाहाता हूँ मैं, कोई मुझे तो अपना समझकर काम दे दो इतना ही कह पाता हूँ मैं, दुनिया कहती हैं कि मजदूर हूँ मैं। धूप-छाँव का नाम मिटाकर अपना पसीना बहता हूँ मैं, तुम्हारे खुशी के लिए ही एक सुंदर सा आशियाना बनाता हूँ मैं, फिर भी कारो ओर ट्रेनों के निचे कैसे कुचला जाता हूँ मैं, दुनिया कहती हैं कि मजदूर हूँ मैं। बेमुरव्वत इस भीड़ की गंदगी उठाता हूँ मैं, 45 डिग्री धूप मैं काम कर के पसीना बहाकर पैसा कमाता हूँ मैं, कुछ लोगों के द्वारा तो चोर समझा जाता हूँ मैं , दुनिया कहती हैं कि मजदूर हूँ मैं ।