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बच्चों के लिए समर्पण की दरकार

virendra kumar dewangan 30 Mar 2023 आलेख बाल-साहित्य Child Problem 88553 0 Hindi :: हिंदी

नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी ने कठुआ (जम्मू एवं कश्मीर, उधमपुर-जिला) केस पर गहरा दुःख व्यक्त करते हुए कहा था कि मासूस बच्चों के शवों का इस्तेमाल राजनीति के लिए नहीं होना चाहिए। 
उनका यह भी कहना था कि सभी राजनीतिक दल संसद के अगले सत्र के एक दिन का कामकाज बच्चों को समर्पित करना चाहिए।
नोबेल विजेता और बाल अधिकार कार्यकर्ता ने बच्चों के हित में बड़े मार्के की बात कही थी। हमारे सांसदों को देश के बालहित में इतना तो करना ही चाहिए। 
जब वे फोकट के हंगामे और व्यवधान करने के लिए कई-कई दिन तक संसद को बंधक बनाकर रख सकते हैं, तब एक दिन देश के उन अबोध मासूमों के लिए समर्पित क्यों कर ही सकते हैं, जो देश के भविष्य होते हैं? 
वे एक दिन निर्धारित कर बच्चों के काम-काज, खेलकूद के साधन-सुविधा, शोषण, बाल मजदूरी, जन्म-मरण, पढ़ाई-लिखाई, नौकरी-चाकरी, कार्य-व्यापार और उनके भविष्य की योजनाओं पर बहस करते हुए ठोस प्रस्ताव पास कर सकते हैं। 
यह काम उनके जीवन को संवारने और उनको दिशा देने के लिए किया जाना उतना ही जरूरी है, जितना कोई समझदार परिवार अपने बच्चों के भविष्य के लिए योजनाएं बनाता है और उसको अमलीजामा पहनाता है। किंतु अफसोस कि ऐसा अभी तक हुआ नहीं है। किसी ने उनकी बातों को तवज्जो दिया नहीं है।
	खासकर, बच्चियों की सुरक्षा के लिए ऐसा करना जरूरी हो गया है। वरना ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा थोथा साबित होने में देर नहीं लगनेवाली है। 
क्योंकि, जब बेटियों के बाप ही मार दिए जाएंगे, जैसा उन्नाव रेप केस में हुआ है, तब बेटियों को बचाएगा कौन; उनके जीवन को संवारेगा कौन? बेटियों को बचाना है, तो उनके पिताओं को भी बचाना होगा, तभी बेटियां बचेंगी।
यह कहने से नहीं चलेगा, ‘‘लड़के हैं। लड़कों से गलती हो जाती है।’’ इसके अलावा लड़कियों के पहनावे-ओढ़ावे को लेकर ओछी व तुच्छ बयानबाजी से बाज आना होगा। 
उन्हें ये समझना होगा कि बलात्कार का संबंध पहनावे-ओढ़ावे से 99 प्रतिशत नहीं है। कठुआ की मासूम, धूमंतू खानदान की 8 वर्षीय बालिके थी। उसके वस्त्रों में कोई खोट नहीं था। असल में खोट बलात्कारियों की नीयत मंे ही था।
	राजस्थान, मप्र. हरियाणा की सरकारों ने 12 साल से कम उम्र की बच्चियों के दुष्कर्मी को फांसी देने का प्रावधान किया है। 
इसकी देखा-देखी केंद्र सरकार भी पास्को एक्ट में संशोधन की है। यह खबर थोड़ी सुकून देती है। कारण कि नाबालिक के बलात्कारी को जधन्य अपराधी माना जाकर फासी देने का विधान बनाना जाना एक स्तुत्य प्रयास है। 
लेकिन, त्वरित एफआइआर दर्ज न होना, आरोपियों की धरपकड़ और जांच-पड़ताल में विलंब करना, पुख्ता चार्जशीट दाखिल न करना और फैसला चार-छह माह में न आना, एक ऐसी लाइलाज बीमारी है, जिसका समय रहते इलाज किया जाना जरूरी हो गया है। तभी इस एक्ट का खौफ बरकरार रह सकेगा। 
दूसरे, 12 साल के अधिक उम्र के मुजरिमों पर भी फांसी का विधान लागू किया जाना इसलिए जरूरी हो गया है; क्योंकि बलात्कार, बलात्कार होता है। इसमें उम्र के बंधन को आड़े लाकर बलात्कारियों की सजा को कम करना बलात्कार जैसे जधन्य अपराध को कम आंकना है।
जैसे, आतंकी, आतंकी होता है। उसका कोई जात, धर्म नहीं होता, उसी तरह बलात्कारी का भी कोई जाति, धर्म या उम्र नहीं होती। उसे भी वही सजा दी जानी चाहिए, जो बच्चियों के अपराधियों को देने का विधान बनाया गया है।
16 दिसंबर 2012 को निर्भया गैंगरेपकांड दिल्ली में हुआ था। तब देश में बलात्कारियों के प्रति जैसा आक्रोश उमड़ा था, उससे प्रतीत हो रहा था कि अब, बलात्कार देश में बीते दिनों की बात हो जाएगी। 
लेकिन, नेशनल क्राइम ब्रांच रिपोर्ट कहती है कि उसके बाद 16 अप्रेल 2018 तक लगभग 1.50 लाख महिलाएं, लड़कियां व बच्चियां बलात्कार की शिकार हो चुकी हैं।
प्रतिवेदन कहता है कि देश में ऐसा कोई दिन नहीं गुजरता, जब बच्चियों से बलात्कार की घटनाएं न होती हांे। यह कटुसत्य है। महिलाओं, लड़कियों और बच्चियों के साथ देशभर में प्रतिदिन 104 (प्रतिधंटा चार) बलात्कार होते हैं। रिपोर्ट यह भी कहती है कि इसमें भी ज्यादातर मामले लोकलाज के भय से दबा दिए जाते हैं।
संसद की तरह, देश की राज्य विधाससभाओं में भी एक दिन बच्चों को दिया जाना चाहिए। इससे प्रांतीय सरकारों का कामकाज एक दिन के लिए पूरी तरह बच्चो ंको समर्पित हो सकेगा। 
यही नहीं, ग्रामीण एवं नगरीय निकायें और बाल अधिकार आयोग एक पूरा दिन बच्चों के लिए निकाल सकते है। वे दिनभर बच्चों के हित में कार्य कर सकते हैं। 
वकील को भी बलात्कार जैसे गंभीर अपराध में आरोपियों के बचाव में झूठी दलीलें पेश करने के बजाय उनको सजा देने के लिए अपने सम्मानीय पेशे का इस्तेमाल करना चाहिए। 
इसी तरह जो रसूखदार व पदधारी लोग आरोपितों के पक्ष में खडे होकर कानून-व्यवस्था को प्रभावित करने में जुटे रहते हैं, आरोप सिद्धि पर उन्हें भी सलाखों के पीछे डाला जाना चाहिए।
वक्त का तकाजा है कि बच्चियों के खिलाफ अपराध के मामलों की समयबद्ध व शीध्र सुनवाई सुनिश्चित की जानी चाहिए। 
इसके लिए राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) की तर्ज पर सक्षम ‘‘राष्ट्रीय बाल न्यायाधिकरण’’ बनाया जाना चाहिए। इससे बच्चों के मामले की पृथक सुनवाई शीध्रता से हो सकेगी।
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अनुरोध है कि लेखक के द्वारा वृहद पाकेट नावेल ‘पंचायतः एक प्राथमिक पाठशाला’ लिखा जा रहा है, जिसको गूगल क्रोम, प्ले स्टोर के माध्यम से writer.pocketnovel.com पर  ‘‘पंचायतः एक प्राथमिक पाठशाला veerendra kumar dewangan से सर्च कर और पाकेट नावेल के चेप्टरों को प्रतिदिन पढ़कर उपन्यास का आनंद उठाया जा सकता है तथा लाईक, कमेंट व शेयर किया जा सकता है। आपकी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी।
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