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पालतू परंपरा

Santosh kumar koli 14 May 2023 कविताएँ समाजिक पालतू परंपरा 6385 0 Hindi :: हिंदी

मृत्युभोज गंध पड़ी मंद,
सरकार सरासर सख्त़।
भोज भोग, प्रयोग वालों के,
हुलिया हौसले पस्त।
दिमाग़ सरणी में तरणी कर रही,
मृत्युभोज विरोधी गश्त।
बरबादी आसानी से पीछा,
कब छोड़ती कमबख्त।
तेरहवीं न सही, सवा महीना सही,
मृत्युभोज, सवामणी की सवारी है।
साहब, परंपरा अब भी जारी है।
ऊंट, बैल का जोड़ा, कर्म का फोड़ा,
बचपन में शादी।
सरकार कह कहके सरक गई,
सरासर सरक रही आबादी।
दो घरों व तीन पीढ़ियों की
एकमुश्त बरबादी।
सुधार हुआ मुरदार,
शिकार जोड़-तोड़ उस्तादी।
यहां न तो वहां, आज न तो कल,
बिन पंडित करो, न डर न समझदारी है।
साहब, परंपरा अब भी जारी है।
साहब, परंपरा अब भी जारी है।
भात-थाली में पड़ी,
पंच -पटेलों की आंट।
ग़रीब की ज़रीब से कट रही,
गिरां गांठ।
समाज सुधारकों ने लगाई,
सुधार की सांठ।
जालकीट ने लगा खुरंगा,
कर दी काट- छांट।
थाली में रुपया एक,
अंदर हज़ारी है।
साहब, परंपरा अब भी जारी है।
बेटी जंम पर दिल बैठता,
ब्याह दहेज़ के खर्चे से।
समाज की सूरत, सीरत बदलती,
सुधारकों के चर्चे से।
सम्मेलन में शादी करो,
बचो परजीवियों के परचे से।
खर्चे पीछा कहां छोड़ते,
गिरहकट बरछे से।
सम्मेलन में शादी, घर पर खर्चे,
खुद के पैर, खुद कुल्हाड़ी मारी है।
साहब,परंपरा अब भी जारी है।
साहब, परंपरा अभी जारी है।

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