Santosh kumar koli 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक समय की करवट 50527 0 Hindi :: हिंदी
मैंने, समय को करवट बदलते देखा। औलाद से हारते देखा, दुनिया जीतने वाले को। जटाओं पर जीते देखा, भारी- भरकम तने वाले को। रिश्ते रास्ते बदल रहे, समाज के नक़्शे से। प्यार पोटली सड़क पर बिखरी, परिवार के बक्से से। वृद्धों के अरमान, वृद्धाश्रम में सुलगते देखा। मैंने, समय को करवट बदलते देखा। उपलब्धियों के शिखर से, व्यक्ति को लुढ़कते देखा। तूने किया ही क्या है, बेटा बाप पर कड़कते देखा। लकीर के फ़कीर, हीर बन जाते अख़ीर में। मोबाइल ने सेंध लगा ली, दादी -नानी की तासीर में। यमुना जी के पाट में, गंगा जी को बहते देखा। मैंने, समय को करवट बदलते देखा। गाय और माई को, अपने होने पर रोते देखा। सांच को झूठ आंचल, चिरनिद्रा में सोते देखा। लोहे को कच्चे धागे से, देखा कटते। सिल डूब, लोढ़े को देखा तैरते। लाख नेकी पर, एक बदी को भारी, पड़ते देखा। मैंने, समय को करवट बदलते देखा। अंधविश्वास शिकंजे में, शिक्षा को देखा फंसते। खून की क़ुर्बानी पर, खून को देखा हंसते। घर की जगह, जन्मते, मरते अस्पताल में। हर व्यक्ति रोड़ पर आना, चाहता है हर हाल में। अंत खाते को, शून्य में सिमटते देखा। मैंने, समय को करवट बदलते देखा। मैंने, समय को करवट बदलते देखा।