Santosh kumar koli 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक बचपन के खेल 17948 0 Hindi :: हिंदी
काली-पीली आंधी में, काग़ज़ को उड़ाना। मेह बाबा आ जा, दूध राबड़ी खा जा, कह बारिश को बुलाना। दौड़ लगाते गलियों में, होकर नंग धड़ंग। मैं, मेरे साथी, बारिश की बूंदों का संग। छुक-छुक, चलाते रेल थे। वो भी, क्या खेल थे। बरसात के पानी में, मिट्टी का बनाते बांध। नौका तैरती काग़ज़ की, पानी में पकड़ते चांद। तिराना ठीकरी पानी में, सब खेलों का सार। वो कलाकार होता था, जो तिरा दे ज़्यादा बार। गीली बालू के घरौंदे, भावों के हेल थे। वो भी, क्या खेल थे। सतोलिया, कंचा में, वो निशाना लगाना। एक टांग पर फुदक-फुदक, लंगड़ी में घर बनाना। हाथी-घोड़े गार के, बनाते चूल्हा-चक्की। थूक लगा चमकाने से, काम होता था नक्की। गुस्सा, कुट्टी, साथी की नकेल थे। वो भी, क्या खेल थे। चोर-सिपाही, राजा-रानी, मन को खूब भाते थे। इन खेलों से पूत के पग, पालने दिख जाते थे। वो धूप, वो पसीना, घेरे की लूट खसोट। गिल्ली- डंडा खेल में, गिल्ली पर डंडे की चोट। वो, आज के खेलों से, बेमेल थे। वो भी, क्या खेल थे। मन को खूब भाती थी, मिट्टी की घिसल-पट्टी। घिस-घिसके फट जाती थी, वो अकेली चड्डी। टहनी पर झूला झूलते, कभी इधर कभी उधर। फल खाते चुपके से, वो माली का डर। हम ही खेले, हम ही मिटाए, हम ही पटेल थे। वो भी, क्या खेल थे। वो भी, क्या खेल थे।