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प्रेरणादयाक कहानी-गलतफहमी सपनों का सौदागर

Karan Singh 13 Feb 2024 कहानियाँ समाजिक प्रेरणादयाक कहानी- 👌*गलतफहमी*👌 ★Writter- सपनों का सौदागर....करण सिंह★/सपनों का सौदागर करण सिंह/spno ka sodagar karan singh/भक्ति/देवदास/रविदास/रामायण/महाभारत/मोटू पतलू/बच्चों की कहानियां/सविधान/किसान नेता/ग़लत फहमियां/छोटी बहु/ 9589 0 Hindi :: हिंदी

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प्रेरणादयाक कहानी- 👌*गलतफहमी*👌
★Writter- सपनों का सौदागर....करण सिंह★
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*प्रेरक कहानी*
👌प्रस्तुतकर्ता-सपनों का सौदागर... करण सिंह👌
*गलतफहमी*

फाइलें तैयार कर रिचा बॉस के केबिन में पहुंची, तो पता चला कि वे घर के लिए निकल चुके हैं.
“ओह, लगता है जल्दी में भूल गए. चलो, उनका घर तो रास्ते में ही है, देते हुए निकल जाऊंगी. एक बस ही तो बदलनी पड़ेगी.” सोचते हुए रिचा बॉस के घर चल पड़ी.
बंगले के बाहर खड़े चपरासी ने उसे अंदर बैठक तक पहुंचा दिया था.
बॉस बेटे को पढ़ा रहे थे. उनकी पीठ दरवाज़े की ओर थी.
“लेकिन डैडी, मैडम ने दूसरे तरी़के से समझाया था, जो बहुत शॉर्ट था.”
“दूसरा कोई तरीक़ा नहीं है. इसी तरी़के से होगा.”
काफ़ी देर तक दोनों की बहस सुनने के बाद रिचा से रहा नहीं गया.
“सर, बच्चा ठीक कह रहा है. इसे इस तरह एच.सी.एफ. निकालकर करेंगे.” पलक झपकते ही रिचा ने सवाल हल कर दिया.
“हां, मैडम ने बिल्कुल ऐसे ही तो सिखाया था.” ओजस ख़ुशी से उछल पड़ा.
“अच्छा, अब अपने कमरे में जाकर बाकी होमवर्क करो. मुझे कुछ काम है. हूं… आप यहां?” उदय ने डैडी से बॉस की भूमिका अख़्तियार कर ली थी.

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प्रेरणादयाक कहानी- 👌*गलतफहमी*👌
★Writter- सपनों का सौदागर....करण सिंह★
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“ये फाइलें पूरी हो गई थीं. मुझे लगा अर्जेंट है, तो घर देने आ गई.”
“ओह हां, मैं तो भूल ही गया था.”

फाइलें चेक करवाकर रिचा जाने लगी, तो उदय बोल उठे, “मैथ्स अच्छी है आपकी!”
“जी थैंक्यू! यहां से पहले मैं स्कूल में थी, तो मैथ्स ही पढ़ाती थी. और विषय भी पढ़ाती थी, पर मैथ्स के लिए बच्चे मुझे आज तक याद करते हैं.” प्रशंसा से उत्साहित हो बोलते समय रिचा ने यह नहीं सोचा था कि यह आत्मप्रशंसा उसे कितनी भारी पड़ेगी.
“ठीक है, कल से आप ओजस को एक घंटे मैथ्स पढ़ा दिया करें. ऑफ़िस के बाद मेरे साथ ही आ जाना. बाद में ड्राइवर आपको घर छोड़ देगा.”
“पर सर, मेरे पास इतना व़क़्त…” रिचा फंस गई थी.
“आप जो फ़ीस लेंगी, मुझे मंज़ूर है. दरअसल पढ़ाई छोड़े इतना व़क़्त हो गया है. फिर वैसे ही ऑफ़िस के इतने झमेले… उस पर घर आने के बाद भी चैन नहीं. अंदर क़दम रखते ही शिकायतों का पुलिंदा.” उदय को लगा कि वह आवेश में कुछ ज़्यादा ही बोल गया है, इसलिए उसने बीच में ही बात रोक दी.
“तो कल आप तैयार रहना.”
रिचा के पास स्वीकृति में गर्दन हिलाने के अलावा कोई चारा न था. लेकिन कमरे में पहुंचते ही वह अपने रूममेट स्वाति के सम्मुख बिफर पड़ी. स्वाति ने उसे समझाया कि बॉस से बनाकर चलने में ही समझदारी है, जब तक कि वह उसके साथ कोई ग़लत हरकत न करे.
“मुंह नोंच लूंगी यदि उसने ऐसा कुछ किया तो.” देर तक रिचा बड़बड़ाती रही और स्वाति उसे शांत करती रही. घर से दूर इस घर में दोनों ही एक-दूसरे का सहारा थीं.

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प्रेरणादयाक कहानी- 👌*गलतफहमी*👌
★Writter- सपनों का सौदागर....करण सिंह★
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दो-चार दिन चले इस क्रम में ही रिचा के सम्मुख बॉस के घर का खाका काफ़ी स्पष्ट हो गया था. बॉस की पत्नी मालिनी काफ़ी अहंकारी स्वभाव की महिला थीं. हर व़क़्त उनकी त्यौरियां चढ़ी रहती थीं. मुस्कुराना तो शायद उन्होंने सीखा ही नहीं था. रिचा जैसी सुंदर युवती का रोज़ पति के संग घर आना उन्हें फूटी आंख नहीं सुहा रहा था. बॉस उदय उसे ज़रा पलायनवादी प्रवृत्ति के लगे. घर, बीवी से निर्लिप्त वे स्वयं को ज़्यादा से ज़्यादा देर ऑफ़िस की फ़ाइलों में डुबोए रखते थे. हां, दस वर्षीय ओजस न केवल पढ़ाई में अच्छा था, वरन् अन्य गतिविधियों में भी रुचि रखता था और रिचा से इस बारे में विचार-विमर्श भी करता था. घर के उबाऊ-उखड़े वातावरण से निर्लिप्त वह भी अपनी पढ़ाई, खेलकूद, कंप्यूटर आदि में ही मस्त रहता था. रिचा की उससे अच्छी छनने लगी, लेकिन चौथे दिन ही मालिनी मैडम ने उसे अल्टीमेटम पकड़ा दिया.
“शाम को ओजस का खेलने का समय होता है. आप दिन में आकर पढ़ा दिया करें.”
“लेकिन दिन में मैं ऑफ़िस में रहती हूं.”
“वो मैं उदय से बात कर लूंगी.”
रिचा के सम्मुख फिर गर्दन हिलाने के अलावा कोई चारा न था. घर आकर स्वाति के सम्मुख खीझ निकालने के अतिरिक्त वह कुछ न कर पाई.

उस दिन मैडम का मूड काफ़ी अच्छा था.
“कल ओजस का जन्मदिन है. आप पढ़ाने के बाद यहीं रुक जाना. पार्टी के बाद ड्राइवर आपको घर छोड़ आएगा.”
रिचा का मन हुआ मना कर दे. लेकिन एक तो ओजस का आग्रह और फिर
पहली बार मैडम की कृपादृष्टि, वह इंकार नहीं कर पाई.
ख़ूब सारे चॉकलेट्स और गेम्स की सीडी पाकर ओजस ख़ुशी से उछल पड़ा. वह कंप्यूटर पर मस्त हो गया और रिचा मैडम के पास रसोई में चली गई. वैसे तो घर में ढेरों नौकर थे, लेकिन कुछ विशेष व्यंजन बनाने और बैठक सजाने में रिचा ने पूरा-पूरा सहयोग दिया. मालिनी उससे बहुत ख़ुश हो गई. पार्टी में भी उसने आगंतुकों के सामने रिचा की दिल खोलकर तारीफ़ की. उदय और मालिनी बड़े प्रेम और आदर से मेहमानों का आदर-सत्कार कर रहे थे. उन्हें देखकर कोई सोच भी नहीं सकता था कि इतना आदर्श नज़र आनेवाला यह जोड़ा साधारणतः एक-दूसरे से बात करना भी पसंद नहीं करता.
देर रात तक रिचा स्वाति को पार्टी की ही सब बातें बताती रही.

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“दोनों दिल के बुरे नहीं हैं. फिर पता नहीं क्यों एक-दूसरे से इतना खिंचे-खिंचे रहते हैं?”
“जब हमारी शादी होगी, तब सब समझ आ जाएगा. अभी सो जा और मुझे भी सोने दे.” स्वाति करवट बदलकर लेट गई, तो रिचा भी सोने का प्रयास करने लगी. उस दिन से रिचा के संबंध मैडम से मधुर हो गए थे. अब वह पढ़ाने के बाद कभी-कभी उसे चाय के लिए रोक लेती थी. बातों-बातों में ही रिचा को पता चला कि मालिनी मैडम काफ़ी अमीर और प्रतिष्ठित घराने की थीं, जबकि बॉस एक साधारण मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक़ रखते थे. शायद बॉस की अच्छी नौकरी के कारण ही यह रिश्ता तय हुआ होगा. रिचा ने कयास लगाया.
उस दिन रिचा ओजस को पढ़ाने पहुंची, तो पता चला वह स्कूल से लौटा ही नहीं था. वार्षिकोत्सव की तैयारी के कारण स्कूल की छुट्टी देरी से होने वाली थी. रिचा लौटने लगी तो मालिनी ने उसे रोक लिया.
“अब आई हो तो कुछ देर मेरे पास बैठ जाओ. वैसे भी आज मेरी तबियत ठीक नहीं है.”
रिचा ने मालिनी की नब्ज़ छुई, तो उन्हें बहुत तेज़ बुख़ार था. चाय के संग टेबलेट देकर लौटने लगी, तो मालिनी ने उसका हाथ थाम लिया.
“कुछ देर और बैठो. तुमसे बातें करने का मन कर रहा है.” आत्मीयता में मालिनी तुम पर आ गई थी. रिचा उनके दिल के दर्द को महसूस कर चुपचाप बैठ गई.
“उदय और ओजस दोनों ही बहुत व्यस्त रहते हैं. मैं बहुत अकेलापन महसूस करती हूं. टीवी पर सास-बहू सीरियल्स देखकर आख़िर कितना व़क़्त गुज़ारा जा सकता है? किटी पार्टियों में भी मेरी ज़्यादा रुचि नहीं है. सच कहूं तो आभिजात्य परिवार से होते हुए भी मुझे उस तरह की कोई लत नहीं है.”
“फिर तो आपका और सर का नेचर एक जैसा है. वे भी तड़क-भड़क से दूर शांत, सीधे-सादे हैं.” रिचा ने अपना मत रखा.
“हूं… काफ़ी जान गई हो अपने सर के स्वभाव के बारे में! अच्छा तुमने कभी किसी से प्यार किया है?”
“यह क्या सवाल है?.. नहीं तो?” रिचा की ज़ुबान लड़खड़ा गई.
“अच्छा, पहले प्यार के बारे में तुम्हारा क्या ख़्याल है?”

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 रिचा उठ खड़ी हुई.
“आपको शायद ग़लतफ़हमी हो गई है.”
“तुम ग़लत समझ रही हो. बैठो! मैं यह जानना चाह रही थी कि क्या इंसान कभी अपने पहले प्यार को भुला नहीं पाता? क्या उदय उस टीचर को कभी भुला पाएंगे?”
“कौन टीचर?” रिचा को बात कुछ-कुछ समझ आने लगी थी. तो उसके प्रति दूरी बरतने के पीछे मैडम के मन का यह पूर्वाग्रह था.
“उदय एक साधारण परिवार की लड़की, जो एक टीचर थी, को पसंद करते थे. लेकिन जब मेरा रिश्ता गया, तो उनके माता-पिता ने बात पक्की कर दी. उदय जानते थे कि उस टीचर से शादी के लिए अपने माता-पिता को कभी नहीं मना पाएंगे, इसलिए बुझे मन से मान गए.”
“आप ये सब कैसे जानती हैं?”
“ख़ुद उदय ने बताया था, जब हम पहली बार अकेले में मिले थे.”
“तो आपने शादी करने से मना क्यों नहीं कर दिया?”
“इसका जवाब मुश्किल है. एक तो शायद यह कि पहली नज़र में उदय जैसा सुदर्शन, सुसंस्कृत, शिक्षित, उच्च नौकरीवाला युवक मुझे भा गया था. दूसरे, मुझे लगा उदय उस लड़की के तो कभी होंगे नहीं, तो फिर किसी और के होने की बजाय मेरे ही क्यों न हो जाएं. कुछ मुझे अपने रूप और पैसे का भी घमंड था. मुझे लगा वे शादी के बाद उसे भूलकर मेरे दीवाने हो जाएंगे.”
“फिर?” रिचा को इस प्रेम-कहानी में रस आने लगा था.
“उदय ने मुझे सम्मान दिया. कभी तिरस्कृत नहीं किया. लेकिन वो प्यार, वो दीवानगी, जिसकी मुझे अपेक्षा थी, मुझे कभी हासिल नहीं हुआ. अपना दंभ खोखला साबित होने पर मैं चोट खाई नागिन की भांति बिफर उठी. बात-बात पर उन्हें प्रताड़ित करने लगी. अपने पैसे का रौब दिखाकर उन पर हावी होने का प्रयास करने लगी. फलस्वरूप उदय मुझसे कटने लगे. मैं आज भी उनकी पत्नी मात्र हूं, प्रेयसी नहीं. क्या उदय सचमुच अपने पहले प्यार को ज़िंदगीभर नहीं भुला पाएंगे?” पूरी कहानी सुन लेने के बाद रिचा का आत्मविश्‍वास लौट आया था. वह स्वयं को काफ़ी महत्वपूर्ण समझने लगी.

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“मैं इस अनुभव से गुज़री तो नहीं हूं मैडम…”
“प्लीज़ रिचा! मुझे मैडम मत कहो. छोटी बहन मानकर तुमसे अपना दर्द बयान किया है.”
“दीदी! मेरी जानकारी तो यह कहती है कि पहला प्यार विपरीत लिंग के प्रति शारीरिक आकर्षण मात्र होता है, जो समझ आने पर अपने आप समाप्त हो जाता है. मुझे नहीं लगता कि सर के दिल में उस टीचर के लिए छुटमुट स्मृतियों के अलावा अब कुछ बचा होगा.”
“सच कह रही हो?” आशा की एक किरण मालिनी की आंखों में कौंध उठी.
“हां दीदी, बिल्कुल सच.”
“तुमने मेरे दिल को आज बहुत तसल्ली दी है.” मालिनी ने भावावेश में रिचा का हाथ कसकर थाम लिया तो वह अनमनी-सी हो उठी.
“मैं अब चलती हूं. बहुत देर हो गई है.”
रिचा की व्याकुलता स्वाति से छुप नहीं सकी. रिचा ने सब कुछ उगल दिया. “मैं नहीं जानती स्वाति, दीदी को तसल्ली देकर मैंने अच्छा काम किया या बुरा? मैं बस इतना जानती हूं कि मुझसे उनकी पीड़ा नहीं देखी गई. मैं दिल से चाहती हूं कि उन दोनों का मिलन हो जाए, पर कैसे…? इतने नाज़ुक़ रिश्ते के बीच में औघड़ करूं भी तो क्या?” रिचा की चिंता का कोई समाधान न था.
ओजस का कोर्स समाप्त हो चुका था, इसलिए रिचा ने वहां जाना बंद कर दिया था. परीक्षा समाप्त होते ही ओजस मम्मी के संग ननिहाल चला गया. रिचा ने भी अपने आप को ऑफ़िस के कामों में डुबा दिया था. उस दिन ऑफ़िस से निकलते बहुत अंधेरा घिर आया. उदय ने रिचा को घर छोड़ देने का प्रस्ताव रखा, क्योंकि आख़िरी बस भी निकल चुकी थी. रिचा को मानना पड़ा. दोनों के बीच चुप्पी पसरी रही. आख़िर उदय ने ही मौन तोड़ा.
“ओजस और मालिनी के फ़ोन आते रहते हैं. दोनों तुम्हें बहुत याद करते हैं. जादू-सा कर दिया है तुमने उन पर. ओजस का रिज़ल्ट बहुत बढ़िया रहा, इसका श्रेय भी तुम्हें ही जाता है.”
“ओजस को स्कूल खुलने से पूर्व यदि एक बार मैथ्स का कोर्स करवा दिया जाए, तो उसका रिज़ल्ट और भी अच्छा रहेगा.”

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“अच्छा! फिर तो उन्हें बुला ही लेते हैं… वैसे भी इस बार मालिनी ने बहुत दिन लगा दिए हैं. हमेशा तो जल्दी लौट आती थी. कुछ ख़याल ही नहीं मेरा.”
“आपको है?” आक्रोश में जाने कैसे रिचा के मुंह से निकल गया.
“क्या कहा तुमने? मैं मालिनी का ख़याल नहीं रखता.”
“सॉरी सर!… ग़लती से…”
“मालिनी ने तुम्हें मेरे बारे में क्या बताया है? पिछले कुछ समय से मैं उसमें आश्‍चर्यजनक परिवर्तन देख रहा हूं. उसका अभिमान, दर्प सब कहीं खो-सा गया है. एक टूटन-सी महसूस कर रहा हूं मैं उसके अंदर. न कोई उपालंभ, न कोई अवहेलना… बस, किसी सोच में गुम. तुम्हारे संग इधर वह काफ़ी व़क़्त बिताने लगी थी. मुझे बताओ रिचा, कोई परेशानी है उसे? मैं उसे उदास, परेशान नहीं देख सकता. बहुत प्यार करता हूं मैं उससे.” उदय भावुक हो गया.
“तो फिर वह टीचर?” रिचा से रहा नहीं गया.

“कौन…? शायद तुम मोना की बात कर रही हो. मालिनी ने बताया होगा. उसे तो मैं कब का भुला बैठा. एक दिन स्टेशन पर ही देखा था उसे. मुटियाई-सी, बच्चे को लटकाए, कर्कश आवाज़ में पांच रुपए के लिए कुली से झगड़ रही थी… ह हं? वह भी क्या उम्र होती है न? नई-नई जवानी, नई-नई ख़ुमारी, हर सुंदर लड़की प्रेमिका नज़र आने लगती है. मौसमी बुख़ार!! थोड़े समय बाद सब उतर जाता है… आश्‍चर्य है! मालिनी अभी तक उस लड़की के बारे में सोचती है? चलो, ओजस की प़ढ़ाई के बहाने उन्हें बुला लेता हूं. यह ठीक सुझाया तुमने”
“बस, यहीं रोक दीजिए. मैं चली जाऊंगी.”
कमरे में पहुंचते ही रिचा स्वाति के सम्मुख फट प़ड़ी.
“अजीब बौड़म, लल्लू आदमी से पाला पड़ा है.”
“कौन?” स्वाति चकित थी.
“अरे वही मेरा बॉस! बीवी को बुलाने के लिए बहाना ढूंढ़ रहा है. सीधे से फोन करके नहीं कह सकता, मालिनी! डार्लिंग, मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं. तुम्हें बहुत मिस कर रहा हूं. तुम्हें लेने आ रहा हूं…”
“रिचा! तुम्हारा पर्स कार में रह गया था.”

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उदय को दरवाज़े पर देख रिचा और स्वाति के तो होश ही उड़
गए. निर्विकार भाव से उदय ने रिचा के कांपते हाथों में पर्स थमाया और लौट गया.
“शायद उसने कुछ सुना ही नहीं. तुम व्यर्थ कांप रही हो.”
स्वाति ने रिचा को ढाढ़स बंधाना चाहा, लेकिन रिचा तब तक संभल चुकी थी.
“सुन भी लिया तो क्या? मुझे अब नौकरी की परवाह नहीं. बस, मेरी दीदी के चेहरे पर मुस्कान खिल आए.”
अगले दिन रिचा धड़कते दिल से ऑफ़िस में प्रविष्ट हुई और सीधे सीट पर जाकर बैठ गई. अभी चपरासी उसका निलंबन पत्र लेकर आता ही होगा. सचमुच चपरासी आ गया.
“साहब ने आपके नाम यह पत्र छोड़ा है.”
“छोड़ा है मतलब?”
“आपको नहीं मालूम? वे अपनी फैमिली को लेने गए हैं.”
रिचा की सांस हलक में अटक गई. लिफ़ा़फे पर उसी का नाम था. कांपते हाथों से उसने पत्र खोला. अंदर केवल एक शब्द था, ‘थैंक्यू !’ नीचे हस्ताक्षर थे ‘लल्लू, बौड़म’
रिचा के चेहरे पर अनायास ही मुस्कान खिल उठी.

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