Rupesh Singh Lostom 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक खाव 98343 4 4.5 Hindi :: हिंदी
ख्वाब जगती आखें को देखा ,रातों में ख्वाब सजाते धुंधला सा तस्वीर बनता ,खिड़की के बरिख झिरी के पीछे रंग बिरंगो पंखो बाले ,सपनो में उड़ान हों जैसे बापू के चश्मा हाथ में डंडा ,फिर ,लड़ने की बरी हो जैसे अधेड़ उम्र नग़ बदन ,चाल में बही रफ़्तार हो जैसे जगती आखें को देखा ,रातों में ख्वाब सजाते कही पर दंगा कही फसाद कही नारी पर अत्याचार कही पर लुटती है नारी तो कही पर जूझता है समाज रक्क्षक यहाँ भक्क्षक है और प्रजा हैं परेशान सपने ने क्या खूब दिखाया बिगड़ी है हालात ऐ कैसी लड़नी होगी फिर लड़ाई कुछ अत्याचारी तत्बो से जगती आखें को देखा रातो में खाव सजाते देश चलाने का ठेका हमने जिनको सौपा है बो तो एक सौदागर है जनता की जज्बातों का सफ़ेद पोस में दिखते ऊपर से अंदर एक जैचंद है सत्ता के लड़ाई में देखो पीस रहे हम और आप जागो यारो जग भी जाओ बाद में फिर पछताओगे जगती आखें को देखा रातों में खावसजाते
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