Santosh kumar koli 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक समाज की दिशा 69889 0 Hindi :: हिंदी
हां, ज़माना बदल रहा है। यह,समाज को छल रहा है। बच्चे, दादा-दादी के, सानिध्य में रहते थे। एक था राजा, एक थी रानी, किस्से सुनते थे। बहन, बेटी सबकी समान, संस्कार बुनते थे। ऐसे परिष्कृत बीजों से, मीठे फल के वृक्ष उगते थे। मां को मम् ले गई, पिता रूप में डैडि पल रहा है। यह, समाज को छल रहा है। इंटरनेट की अटक में, अटकी हैं सबकी सांस। चरित्र जाए तो जाए, नहीं जा रहा चांस। अनैतिक प्रेम- प्रसंग, बन रहा गले की फांस। आज बच्चे देखते, मम्मी -पापा का रोमांस। मोबाइल समाज को, अश्लील चाशनी में तल रहा है। यह, समाज को छल रहा है। आज दादा -दादी की जगह, टीवी के साथ बैठते हैं। एक था राजा, एक थी रानी की जगह, सामूहिक संहार देखते हैं। कोई रिश्ता नाता नहीं, हवस की जोर से जय बोलते हैं। हत्या, लूट, अपहरण, तो नाश्ते में ही परोसते हैं। रिश्ते, नातों की हवि से, समाज जल रहा है। यह, समाज को छल रहा है। हां, ज़माना बदल रहा है। यह, समाज को छल रहा है।