Santosh kumar koli ' अकेला' 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक संवेदना 65359 0 Hindi :: हिंदी
चिलचिलाती धूप में लू के थपेड़ों के बीच पसीने से तर -बतर चिथड़ों में लिपटी एक बूढ़ी -सीऔरत अपने दो बच्चों के साथ सड़क किनारे बैठी भीख की गुहार कर रही थी। भूख उनकी आंखों से टुकुर-टुकुर झांक रही थी। वे बेबस, कातर, ललचायी भावनाओं से व्यस्त यातायात की ओर अपनी पस्त नज़रें पसारे हुए थे। कोई रोटी का टुकड़ा मिल जाए वह मां अपने कलेजे के टुकड़ों को टूक- टूककर दे सके। लंगर लगाते, दावत देते तो बहुत देखा है पर कोई हो ऐसा जो इनकी सांसो में रोटी की आस पूर सके और ये सड़क किनारे नहीं सड़क पर नज़र आएं।