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दैव इच्छा सर्वोपरि

Mohan pathak 30 Mar 2023 कहानियाँ अन्य पर्यावरण संरक्षण 32796 0 Hindi :: हिंदी

             दैव इच्छा सर्वोपरि                                 
 इस बार  पन्द्रह दिन की छुट्टी में घर पहुँचा तो पत्नी ने बताया कि कुछ दिनों से हरुआ मास्साब की तबियत ठीक नहीं है। हमने कहा बुढापा हुआ। उम्र भी अब काफी हो चुकी होगी।  हमें अपने बचपन के दिन याद आने लगे ।हरुआ मास्साब खादी का कुर्ता और खड़ी का ही पायजामा, सिर पर गांधी टोपी, हाथ में छड़ी और कंधे में गांधी झोला डाले किसी आधुनिक नेता से  लगते थे। उनकी एक आवाज से कक्षा में शान्ति छा जाती थी। हरुआ मास्साब का पूरा नाम हरिराम आर्या है। परंतु गांव, घर स्कूल और दूर दूर तक के लोग उन्हें हरुआ मास्साब के नाम से ही जानते हैं। मास्साब से मुलाकात भी हो जाएगी और स्वास्थ्य के बारे में पूछताछ भी,यही सोचकर  हम सवेरे ही मास्साब के घर की ओर चल दिये। हरुआ मास्साब का परिवार जहाँ रहता है , वहाँ पाँच सात साल पहले घना जंगल था। लोग दिन में भी अकेले उस जंगल में जाने का साहस नहीं करते थे। आज उस लटवानी में एक नहीं पूरे दस बारह परिवार रहते हैं। जंगल कहीं दूर जाकर सिमट गया है। लटवानी ऐसी जगह जो चारों ओर से बाँज(oak) के विशाल वृक्षों से घिरा हो।  हरुआ मास्साब जो अब काफी वृद्ध हो चुके हैं। अपने घर के आँगन में बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे हैं। चेहरे पर बुढ़ापे की झुर्रियों से पड़ी दरारें, सूखे के कारण भूमि पर पड़ी दरार सी लग रही हैं।। शरीर की हड्डियों के जोड़ ऐसे सिमटे हैं जैसे छुई मुई का पौधा छू लेने पर सिमट जाता है। अस्सी साल की अवस्था परन्तु जोश बीस के युवकों जैसा।विकास की दौड़ में पल पल कटते जंगल, बेहतर जीवन की आस में पलायन करते लोग और भौतिक सुविधाओं के तंत्र के कारण छिन्न भिन्न होती गाँव की परम्परा और संस्कृति को लेकर मास्साब के मनोमष्तिस्क पर आक्रोश के भाव वृद्धावस्था के भाव से भी अधिक गहरे दिखाई दे रहे हैं।हमारे पहुँचते ही मास्साब ने ग्रामसुलभ सत्कार किया। हमारे हाथ जोड़कर नमस्कार कहने पर मास्साब ने कहा,यह आपकी महानता है। हम आपकी बराबरी नहीं कर सकते।                   हमारे बहुत समझाने पर भी कि आप गुरु हैं। आज समय बदल चुका है। समाज से पुरानी जर्जर रूढ़ियाँ समाप्त हो गयी हैं। ऊँच नीच, छुवा छूत की जड़ें अब सड़ गल गयीं हैं, हरुआ ने अपनी लीक से हटना उचित नहीं समझा। बोले, आप तो सच्चे गुरु हैं।भवबन्धन से मुक्ति का मार्ग सुझाते हैं। हमारा गुरुत्व  पापी पेट की आवश्यकता की पूर्ति तक ही सीमित है। बातों का सिलसिला आगे बढ़ाते हुए मास्साब ने बताया मुझे काल की सी याद है ये पूरी बस्ती घना जंगल हुआ करता था। विकास की अन्धी दौड़ और लोगों की अदूरदर्शिता ने सारे जंगल नष्ट कर दिये। मुझे अभी की जैसी याद है । एक बार गाँव के और पड़ोसी गाँव के लोगों ने मिलकर जंगल का अनियन्त्रित दोहन करना शुरू कर दिया था। पुराने तो पुराने नए पनप रहे वृक्षों पर भी आरी चलने लगी। कुछ अराजक लोगों द्वारा जंगल में आग लगा देने से नवपल्लवित पौधे नष्ट होने लगे। फलस्वरूप शीघ्र ही जंगल खतम होते गए।  मास्साब भीगी पलको से  अपनी व्यथा बता रहे थे।जंगल के न रहने से लोगों को दैनिक आवश्यकता की चीजों जैसे ईंधन, चारा, घास,और अन्य के लिए दूर दूर भटकना पड़ा। बहुत सींच विचार कर पुरषोत्तम जी ने एक योजना बनायी।जिससे जंगल को बचाया जा सका। वे उस वक्त गाँव के प्रधान थे। सभी गाँव वालों को बुलाकर बैठक की। उस बैठक में निर्णय लिया गया कि जब तक सर्व सम्मति से देवी की पूजा अर्चना कर जंगल आम जन के लिए खोल न दिया जाय तब तक यह जंगल देवी को चढ़ाया जाता है। जो भी आज से जंगल से कुछ भी कटेगा या अन्य प्रकार से नुकसान पहुँचाएगा उसे देवी दण्ड अवश्य देगी।                                                        देवी की शक्ति और भय के कारण लोगों ने जंगल में जाना छोड़ दिया। देखते देखते कुछ ही सालों में जंगल फिर से हरा भरा होने लगा था। दस साल में ही जंगल एक बार फिर पहले जैसा घना हो गया था। काश!आज भी ऐसा हो पाता कहकर हरुआ मास्साब ने एक लंबी सांस ली और चुप हो गए।  हमने उनकी आंखों में आये आंसुओं से जान लिया कि मास्साब आज की स्थितियों से  परिचित हैं। आज न तो पुरषोत्तम जैसे  लोग हैं और न ही लोगों में वैसी आस्था है। हमने कहा आज तो मनुष्य भौतिकवाद के रंग में डूब चुका है उसे केवल वर्तमान दिखाई दे रहा है। भविष्य की चिन्ता उसे नहीं है।किंतु यह स्थिति भावी समाज के लिए उचित नहीं है। जब पेड़ ही न रहेंगें तो जीने का आधार समाप्त हो जाएगा। ऑक्सीजन के सिलेंडर लगाकर कब तक जीवन के अस्तित्व की लड़ाई लड़ी जा सकती है भला। इतना कहकर मास्साब चुप  हो गए। हमने ही चुप्पी को तोड़ने का प्रयास किया। पलायन को लेकर मैं भी आहत हूँ। पहाड़ की स्वास्थ्यवर्धक जलवायु को छोड़ आपा धापी में शहरों की ओर भागना आज के पढ़े लिखे लोगों की सबसे बड़ी भूल है। शहरों का जीवन एकाकी के साथ साथ अर्थनियन्त्रित हो गया है। सांस लेने के लिए हवा से लेकर पीने के लिए पानी तक का मूल्य चुकाना है। शहरों में हम  लाखों रुपये कमाने के लिए जाते हैं किंतु स्वास्थ्यवर्धक जलवायु, शुद्ध हवा पानी, सामाजिक सामंजस्य, सुलभ भातृभाव, और प्राकृतिक सुन्दरता जैसे अनमोल रत्नों को खो रहे हैं। असल में आज की युवा पीढ़ी भौतिकवादिता की दौड़ में दिग्भ्रमित हो गयी है। कुछ दिखावटीपन की परत जम गयी है। इस परत को हमारी ग्रामीण संस्कृति की आत्मीयता  का ताप  ही पिघला सकता है। युवा पीढ़ी को समझना होगा छोटे छोटे काम के लिए शहर का रुख करना कितना औचित्यपूर्ण है।                                          किसी गहरी चिन्ता में डूबे मास्साब ने कहा, क्या कहें किसी को। मेरे दोनों पुत्र गांव छोड़ शहर में बस गए है। कितना समझाया गांव की संस्कृति , जीवन शहर में कहाँ। अब तो गांव में सभी सुविधाएं हो गयी हैं। यययत के लिए सड़क, बच्चों के लिए अच्छे स्कूल, बैंक और अस्पताल  खुल चुके हैं। मेरे देखते देखते  पच्चीस परिवार इस गांव से पलायन कर चुके हैं। यही स्थिति पड़ोस के गांवों की भी है। समझाने लगो तो कहते हैं बुडढा सठिया गया है, कहते हैं। अब तो ममैं असिया गया हूँ। अपनी मिट्टी इसी मिट्टी में मिल जाय यही एक इच्छा शेष है।  हमने उनकी आंखों में पलायन और वन विनास की व्यथा को पढ़ लिया और इतना ही कहा,' दैव इच्छा सर्वोपरि'।

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