Pravin Chaubey 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक #काव्य #सायरी #पोएम 9276 0 Hindi :: हिंदी
बचपन के दिन अब वो याद आते है वो गलियां वो चौबारे अब हमे बुलाते है। मिट्टी के वो गुड्डा और गुड़िया जाने क्यों हम बनाते थे घर घर से मिट्टी चुरा कर छोटे छोटे अपने सपने सजाते थे बचपन के दिन अब वो याद आते है जा भी आती थी बारिश की बूंदे घर भर सोर मचाती थी कभी इधर तो कभी उधर दीवाल तोड़ के घर के अंदर आती थी मां होती थी परेशान रात भर जाग के रात बिताती थी हमे ना थी फिक्र किसी की हम उन्हीं बूंदों से खूब नहाते थे बचपन के दिन अब वो याद आते है होते सबेरा हम सूत उठ के मस्ती में लग जाते थे कागज का नाव बनाके पानी में तायराते थे हर घर घर जाके बस बारिश का लुप्त खूब उठाते थे कभी इन गलियों कभी उन गलियों में हल्ला खूब मचाते थे बचपन के वो दिन अब याद आते है लगते थे जब मेले नवरात्रि मे सब कुलीफी चाट खाते थे हम तो जाते थे मेले में बस मन मस्त मगन हो आते थे कोई खरीदता खेल खिलौने कोई खाली हाथ आता था हम तो बीन पैसे के पूरे मेले का लुप्त उठाते थे l। बचपन के वो दिन अब याद आते है।
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