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खुशीयों की दिवाली

DINESH KUMAR KEER 30 Mar 2023 कहानियाँ समाजिक 10823 0 Hindi :: हिंदी

आज जब चारों ओर भाग- दौड़ मची हुई है। कैरियर को लेकर कितनी अथक मेहनत करनी पड़ती है। बड़ी मुश्किल से जब हम जब किसी पद प्रतिष्ठा में स्थापित हो पाते है। तब हमारी  आकांक्षाए बढ़ जाती है। पहले यही कोई ले -दे के तीन - चार आकांक्षाए होती कि किसी तरह से पूरी हो जाये।
सबसे पहले बढ़िया से कोई नौकरी मिल जाये। फिर किसी हसीन कन्या को हम अपनी दिल के द्वार का प्रहरी बना दे। ताकि उसकी इज्जाजत के बगैर कोई पत्ता भी न हिल सके।  फिर  दो दिलों को सर ढकने के लिए कोई अपनी छत का जुगाड हो जाये। ये बात अलग है कि पढ़ते -पढ़ते इतना वक्त बीत गया कि कुँवारी काया के पैरामीटर का बैलेंस ही डिसबैलेंस हो गया। वो शोखी , आदाये अब कहाँ ? । वो भी कोई समय था जब अपनी भी मुहल्ले में हनक होती थी। 
यह बात तब की है जब हम अपने जीवन के पन्द्रह बसन्त बिना किसी ग्रीस आयल के पूर्ण कर करके ताजा , ताजा सोलहवें बसन्त में प्रवेश किये थे। कातिक का समय था । किसान अपने खेत रबी की बुवाई के लिए तैयार कर रहे थे। रात की छिटक चंद्रमा जब अपने पूरे शवाब में आती तो उसे देखते ही बनता। हम लड़को की कई टोलियाँ खेतों में 'कबड्ड़ी' और 'घोड़ा माने घोड़चूम' खेलने के लिए निकल जाते। वैसे तो हम लोग अभी टाटक -टाटक जवान हुए थे। कभी- कभार हमारी रेखे अकेले में मुस्कुरा देती तो हम निहाल हो जाते। कब्बडी खेलते समय जो टोली हार जाए वो दोगुने शक्ति के साथ अगले दिन मुकाबला करने को तैयारी जे साथ आती थी। किसी को हराना मंजूर नही था। क्योंकि जो हार जाए उसके घर मे उसे दूध, घीय सबसे पहले बन्द कर दिया जाता था। कारण यह था कि तुम्हारे दूध और घीय खाने से क्या फायदा जब तुम खेलने में हार जाते हो। यह सब दशहरे से दीवाली तक चलता था।  दीवाली तक काफी धान पक जाते और कुछ कट भी जाते । हम बच्चों को हर खेत मे चार- चार अंजुरी बाबा देते। हम सभी अंजुरियो को जुहा - जुहा कर रखते फिर उससे दीवाली के दिन पटाखे, अनार, छूरछूरिया लाते। खूब धूम- धड़ाम होता।
            सचमुच वो भी क्या दिवाली थी। आज इतने सालों बाद सोचता हूँ तो दिल धक से रह जाता है।  दिवाली का त्योंहार बड़ा मनमोहक होता । चारो तरफ रोशनी की चकाचौध होती। हम बच्चे लोग रंग- बिरंगी कलर की मस्तब(छूरछूरिया) को खूब जलाते ।  दर्जनों अनार लाते । उन अनारो की बात निराली थी। जब जब हम अनार में आग देते तो बन्दर एक डाल से दूसरी डाल में खूब उछल कूद करते थे। सचमुच ये रंग बिरंगे बारूद के बन्दर सबका मन मोह लेते थे। पटाखे छुटाने का सबसे अनोखा और बेहतरीन तरीका यह था कि एक दर्जन पटाखों के ऊपर टाठी रख देते ओ भी अपनी नहीं किसी साथी के घर से माँग कर। जब पटाख़े छूटते तो थाली की ढूढाही होती। खैर शाम को ये सब करके सो जाते सुबह भोर में दिवाली बीनना होता। सो हम हम लोगो को दादी जब जगाती तो हम लोग भाग- भागकर दिवाली बीनते थे। सुबह जिसकी दिवाली ज्यादा हो वह उस दिन का बादशाह होता। हम लोग तराजू बनाते उन दिवालियो से। और खूब खेलते।

           ऐसे ही एक बार हम लोग  दिवाली ढूढ़ रहे थे। सो चारो ओर खोजी नयनों से हेर रहे थे।  तभी  हमे आभास  हुआ कि कोई छत से हमे हेर रहा है। हमने ध्यान से आवाज़ो को सुनने लगे।  रूनझूंन की आवाज परख ली। तो  ज्यों ही हमारी एक जोडी नयनो ने उन एक जोड़ी  विस्मित नयनों को देखा तो फिर देखते ही रह गए। फिर कब "नयनों से नयनों का सम्भाषण" कब खत्म हुआ इसका पता तब चला जब उसके नुपरों ने हमसे विदा लेते वक्त रुदन किया। वो रुदन आज भी ज्यों जा त्यों कानो में गूँजता है। फिर उनसे उजाले में कई दफे मुलाकाते और पलको से सवाल किया । मगर वो हर बार अलकों को झुका कर सिर्फ आदाब किया और अधरों में खिली मुस्कान के साथ अपनी राह चली गयी। जब- जब दिल की धड़कनों ने उन्हें याद किया तब- तब वो हाजिर जरूर हुई मग़र खामोशी के साथ। दोनों के दिलो में एक -दूसरे के प्रति अदब- लिहाज था। उनका नाम था दीपा। वो अपने परिवार के साथ दिल्ली में रहती थी । उनके पता पुलिस में  सबइंस्पेक्टर थे । सो तीज- त्योहारों में ही घर आते थे। वो साल भर में एक बार दीपावली में अपने पूरे परिवार के साथ गाँव आते थे। हम लोगों ने  उन्हें देखकर पुलिस और फौज में जाने की तैयारी करनी शुरू कर दिया था। दीपा के पाप बहुत मेहनती थे। वो सुबह भोर में दौड़ने जाते तो लोगो को मैदान में पाकर अपने साथ हमलोगों को भी चार- पाँच चक्कर लगवाते। फिर सपाट, वीम, और दंड बैठक का दौर चलता।  वो सभी को लेकर अपने घर आते दीपा की मम्मी से कहते-
 "अजी सुनो सबके लिए  चाय और चना की व्यवस्था करो। ये सभी यही नास्ता करेंगे।"
 "जी !करते है।" यब बोल करके दीपा की मम्मी अंदर रसोई में चली गयी।
दीपा के पापा तब तक हम लोगो से बतियाते। और हम सबसे बारी- बारी से पूछते। दीपा अपनी मम्मी के साथ चाय- चना सर्व करने आती तो नयनों के कोरो से दीदार कर लेते। मग़र अगले ही पल उसके मोच्छड़ पापा को देखते ही सिट्टी- पिट्टी गुम हो जाती।
एक बार वो हम लोगों का हाल - चाल पूछ रहे थे कि तभी दीपा की दादी आ गयी।
"कस रे आज बहुत फुर्सत मा बईठ हो"
 दीपा की दादी ने कहा।
हम सब लोग दादी के जुडो - कराटो से परिचित थे। कब वो अपने डंडे से हमारा स्वागत कर बैठे इसका हमें कोई अंदाजा नहीं रहता था। वो जब तक अपने सुंदर पोपले श्री मुँह से गलियों का मंगलाचार न करती तब तक हमलोगों का कलेजा न थिर रहता। दीपा को दीपावली का इंतजार रहता और हमे दीपा का इंतजार रहता।
वो हमसे ज्यादा समझदार थी। हम तो गवई थे। कभी उनसे बात करने की कभी हिम्मत हुई। पर एक अजीब की कशिश थी उनको लेकर मन मे। वो जब गुलाबी कुर्ता और सफेद सलवार के साथ कढाई युक्त दुपट्टा डालकर छत से दीदार करती तो मानो कोई अफसरा लगती। उनके प्रश्न पूछते नयन और उत्तर देते ओठ देखते ही बनते। ये दिलों की दास्तान दिलों के पाबन्दियाँ लगने तक बेशक बेरोक टोक जारी रही। आज भी उनकी हथेलियों में लगी मेहँदी की खुश्बू रह रहकर आती - जाती है।  आज भी हमे अमावस्या की काली रात ने दिवाली का इंतजार है। पलक गिरना भूल चुकी इन आँखों को आज भी इंतजार है अपने हिस्से की दिवाली का।

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