Santosh kumar koli ' अकेला' 24 May 2024 कविताएँ समाजिक अपने और मैं 3859 0 Hindi :: हिंदी
मैंने अपनों की, कभी पहचान नहीं की। मैं अपनों में भी, अपना ढूंढ़ता रहा। स्वार्थ छुरी से, उनका सर मूंड़ता रहा। मैंने कभी मीठी, ज़बान नहीं की। मैंने अपनों की, कभी पहचान नहीं की। मैं अपने से बाहर, कभी आ ही नहीं पाया। अहम् के वहम से, कभी संभल ही नहीं पाया। मैंने प्रेम की, कभी अजान नहीं की। मैंने अपनों की, कभी पहचान नहीं की।