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हास्य-व्यंग्य (समसामयिक)

MAHESH 30 Mar 2023 कविताएँ हास्य-व्यंग हास्य-व्यंग्य 11803 0 Hindi :: हिंदी

स्वरचित रचना---काव कही कुछ कहि न जावे! 
संदर्भ---  हास्य व्यंग (समसामयिक)                                            

काव कही कुछ कहि न जावै,                                ढ़ीठ चोर सेंधी मा गावै।                                                लम्बी, लम्बी जो कोई हांकै,                                      मीठ, मीठ जे खुब बतियावै।                                        वही कै जलवा अहै यहि जुग मा,                       ‌जे मक्खन आड़े चून लगावै।                                       सांची कहै जे मारा जावै,                                          झूठै पै इ जग पतियावै।                                               गली गली गोरस चिल्लावै,                                     मदिरा देखौ बैठि बिकावै।।                                           अस कलियुग कै महिमा बाटै,                                 उल्टा चोर कोतवाल को डांटै। 
निहुरे निहुरे ऊंट चरावैं,                                               वै अपुना का मर्द गिनावैं।                                                  जो थे रक्षक, भक्षक होइ गय,                            आस्तीन कै तक्षक होइ गय।                                    जियब जिंदगी भारू होइगै,                                      अब सब कुछ मेहरारू होइगै।                                        सासु तीरथ, ससुरा तीरथ,                                      तीरथ साला-साली होइगै।                                           दुनिया के सब तीरथ झूठे,                                       चारों धाम घरवाली होइगै।                                     गौमाता लावारिस होइगै,                                      ‌‌कुत्तै घर कै वारिस होइगै।                                        एक तो कोढ़ रहा ऊपर से,                                                उहमां पैदा खाज भी होइगै। ‌                                      राजा जथा, तथा प्रजा भी,                                       मनमर्जी के राज अब होइगै।                                     न्याय धरम सब ताखा पै होइगै।                          न्यायालय भी काका होइगै।                                                               भोजन मा अब स्वाद न रहिगै,                                 शबरी, विदुर अब याद न रहिगै।                                 बूढ़ा कहिन सुना हे बुढ़ऊ, 
सब कुछ तो बर्बाद अब होइगै।                               कहिस पतोहिया चुप्पै बैइठ्या,                                बुढ़ऊ देश आजाद अब होइगै।                                    श्रद्धा और विश्वास न रहिगै,
संवेदना, अहसास न रहिगै।                                  सोच विचार के कहब न रहिगै।                                 लाज शरम औ अदब न रहिगै।                                 नाती कहिस सुना हे नाना, 
हमरे आगे तू का जाना।                                          तोहरी बुढ़िया मा का रक्खा,
देखा मल्लिका का तौ जाना।                                      कहै सुनै का बहुतै बाटै,                                             पर आज अभी तक इतनै जाना।                                  आगे समय मिले जौ कबहुं,                                         तौ फिर छानब वेद पुराना।।                                        आज का ब्रह्म ज्ञान-                    
जौ चाहौ संसार सुख, तजौ बुराई चार।                                     चोरी, चुगली, जामिनी, और पराई नार।।
                        ~✍️ महेश

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