Santosh kumar koli ' अकेला' 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक कर्म 36892 0 Hindi :: हिंदी
कर्म से बदले तक़दीर। जैसे उड़ते बादल की, बदले राह समीर। कर्महीन नर का जग में, जीना है बेकार। अलि अलविदा कहेंगे, जब हो कंटीली बार। रात अंधेरी सदा रहे, चांदनी दिन की चार। कर्म- शस्त्र से सदा बहे, सुख- गंग की धार। कर्म- पथ से गंतव्य तक, पहुंचे राहगीर। जैसे उड़ते बादल की, बदले राह समीर। बिना कर्म जड़ जगत्, कर्मी सारा संसार। कर्महीन नर कर्म कर, क्यों बना धरा पर भार? बिना कर्म कुछ नहीं, कर्म जीवन का आधार। वन के राजा सिंह को भी, करना पड़े शिकार। कर्मयोगी का पथ बने, जैसे बहता नीर। जैसे उड़ते बादल की, बदले राह समीर। कर्म से बदले तक़दीर। जैसे उड़ते बादल की, बदले राह समीर। वह नदी कैसी नदी, जिसमें बहता नीर ना हो। उस योद्धा की क्या समां, जिसके तरकश में तीर ना हो। वह पथ भी कैसा पथ, जिसपर राहगीर ना हो। वह धरती भी सूनी- सूनी, जिसपर कर्मवीर ना हो। कर्मयोगी को मिले धरा पर, कामधेनु का क्षीर। जैसे उड़ते बादल की, बदले राह समीर। कर्म से बदले तक़दीर। जैसे उड़ते बादल की, बदले राह समीर।