Devansh Saini 30 Mar 2023 कविताएँ धार्मिक भगवद्गीता - कर्मयोग 16805 0 Hindi :: हिंदी
क्यूँ ख़ुद से तू अंजान है, इच्छाओं में जकड़ा परेशान है। क्यूँ चल रहा इन रास्तों पे, यहां न सुख समान है। यहां न मन की मंज़िल, न अंतःकरण का गाँव है। एक आस्था के दीप सा, रौशन था तेरा मन कभी। फिर क्यूँ उलझके आज तू, तिमिर में घिरता जा रहा। अब डर तुझे है हार का, बहते समय की धार का। जब जीत बस लिबास है, नाक़ाम तख़्त-ओ-ताज का। ना जीत है अडिग यहां, ना हार है अचल यहां। जो शांतचित्त हो खड़ा, विनम्रता से हो अड़ा। डटकर करे जो कर्म को, फलो से पर विरक्त हो। जो आत्मा से आत्मा में, बेवजह प्रसन्न हो। न दुख में जो उदास हो, न सुख में हो उन्मत्त जो। सिद्धि में असिद्धि में, समत्व भाव जो रखे। यज्ञ जो भीतर करे, आहूति दे अहं की जो। प्रसाद पा चरित्र में, सुरा सा बाँटता चले। वही तो कर्मयोगी है, परमात्मा का जोगी है। पर पथ नहीं आसान है, ये संन्यास से महान है। भौतिक भँवर में रहके भी, सकर्म सा वैराग्य है। ये कर्म ही प्रधान है, जो चल सका इस राह पर, वो कर्मयोगी ही महान है, कर्मयोगी...महान है।