Santosh kumar koli ' अकेला' 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक कर्म फूटे 88668 0 Hindi :: हिंदी
घोड़े पर बिठाते, गधे पर बैठते लपककर। आगे बढ़ाते, अड़ते टट्टू- से पैर पटककर । घी पिलाते, कहते आंख फोड़ते,भागते बिदककर। दूध पिलाते, मद का प्याला पीते छककर। सही काम रास नहीं आए, उलटवांसी के खूंटे हैं। कुछ तो, होते ही कर्म फूटे हैं। खुद का पूत कुंवारा, पड़ोसी का दो-दो फेरा। मेरा बिगड़े तो बिगड़े, काम सुधरे तेरा। बिना बीन लहराए नाग, क्या करे सपेरा। औरों की पल्लेदारी में, हो रहा पूत कमेरा। सीधी ओढ़नी पर, उल्टे बेलबूटे हैं। कुछ तो, होते ही कर्म फूटे हैं। मोके के झोंके को, समझते हैं धोखा। बैठते हैं ओबरी, बिठाते झरोखा। भला लगे बुरा, बुरा लगे चोखा। खिलाते मोयन, खाते धोवन, है बली का बोका। सीधी पकड़ाएं, उल्टी पकड़े, छाती कूटे हैं। कुछ तो, होते ही कर्म फूटे हैं। होते ही कर्म फूटे हैं।