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मां-सामने गुस्से से डांटती डपटती है

Santosh kumar koli ' अकेला' 31 Oct 2023 कविताएँ समाजिक मां 8495 0 Hindi :: हिंदी

सामने गुस्से से,
डांटती, डपटती है।
सोए हुए का धीरे से आ,
माथा चूमती है।
सामने निठल्ला, निकम्मा,
कामचोर कहती है।
बाहर मेरी बड़ाई करते,
करते नहीं थकती है।
मेरे दामन का दाग़,
आंसुओं से धोती है।
यही, तो मां होती है।
सबको अपना जीव प्यारा,
बार-बार कहती है।
मेरा संकट खुद,
हंसकर झेल लेती है।
गुस्से से, जा मर जा,
कह सीने पर पत्थर रखती है।
कुछ भी होने पर पत्थर,
पत्थर देव करती है।
कई रातें आंखों से निकाले,
कहां सोती है।
यही, तो मां होती है।
दिल, दिमाग़ दोनों की,
एक साथ सुनती है।
संतान के फ़ैसले,
तो दिल से ही लेती है।
कभी-कभी गुस्से में,
चांटा भी मारती है।
मारने के बाद,
वह उसकी ही जानती है।
बाहर मारती,
खुद छुप -छुपकर रोती है।
यही, तो मां होती है।
आज खाना नहीं दूंगी,
धमकाती है।
जब तक मैं खाता नहीं,
खुद कहां खाती है।
मैं बांझ ठीक थी कहती,
बाहर सारी ग़लती छुपाती है।
ऐसा बेटा किस काम का,
गुस्से से सुनाती है।
यदि घर नहीं लौटूं, तो बेचैन,
बिन आंसू रोती है।
यही, तो मां होती है।
यही, तो मां होती है।

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