Santosh kumar koli ' अकेला' 02 Dec 2023 कविताएँ समाजिक मति -भ्रम 3278 0 Hindi :: हिंदी
एक विषधर, बीच डगर। पड़ा, मेरे सफ़र। मैं ठिठका, अटका, देख चट-पट चक्कर। काला- काला, स्फीत स्फोटा। बीच रास्ते, लोटा -पोटा। कभी हिले, कभी डुले, कभी शांत। हुआ कलेजे पानी, बोले दांत। काल ठेठ, पूंछ लपेट। है नाग, या करैत। मैं संभला, भजा पति कमला। धीरे-धीरे, आगे बढ़ा। वह अड़ा, अड़ा, अड़ता रहा। वह पड़ा- पड़ा, भ्रम संजनित पड़ा। नज़दीक से, जब डाली दृष्टि। वह थी एक रस्सी, भ्रम सृष्टि। सांच कम, है झूठ प्रक्रम। हर मनुज, जीता मति भ्रम।