अभिषेक मिश्रा 30 Mar 2023 कविताएँ धार्मिक मज़हबी मानव, कविता 61300 0 Hindi :: हिंदी
हे ! मज़हबी मानव तेरे कितने रूप और रंग हम समझ ना पाए तेरे जीवन जीने का ढंग । आतंक दंगे-फसाद धर्म की आड़ में आखिर अभी कितने, न जाने इस आग की आंच में जलेंगे सपने कितने । पंथ, धर्म-कट्टरता व मज़हब की आड़ में हे ! मानव, तू भला इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है दानव । तेरे हैं ये रूप अनेक,जिन्हें पहचान न सका कोई एक, आखिर बता ? ? मानवता को कब तक करेगा तू शर्मसार, ना जाने कितने मनुज काल के मुंह में जाएंगे बेशुमार अफगानी जग में फैला है कैसा मंजर जो अपने -अपनों के ही पीठ में घोंप रहे हैं खंजर..l -अभिषेक मिश्रा (इ.वि.वि)