Santosh kumar koli ' अकेला' 30 Mar 2023 कविताएँ समाजिक नकटा, बूचा 24394 0 Hindi :: हिंदी
न मानी की, न ज्ञानी की, न ही भगतों की। ये दुनिया है, नकटों की। नकटों के नकटे दोस्त, नकटों की जमात बड़ी। सारे नकटे एक से, नकटे से नकटे की नज़र लड़ी। एक स्कूल, एक पढ़ाई, एक लिपि एक बारहखड़ी। बोल-मोल एक-सा, एक पासंग एक धड़ी। नकटों की साख, साख कनकटों की। ये दुनिया है, नकटों की। दूसरों की उतारते फिरते, इनकी उतरी हुई है लोई। खोने को कुछ पास नहीं, इनका क्या करेगा कोई। इनकी हो तो कटे, सबकी नाक एक सोई। ऐसा लगता है यह दुनिया, इन्हीं की जोती इन्हीं की बोई। इंसानों की कम, पूछ मरकटों की। ये दुनिया है, नकटों की। एक नकटा सब पर भारी, अच्छाई आंखें मल रही। सौ नकटों की एक खाक, अखंड जोत जल रही। भलाई तो बिल में बैठी, जोत धूल रल रही। कभी- कभी ऐसा लगता है, ये दुनिया नकटों से चल रही। अच्छाई को मात, बात है लपटों की। ये दुनिया है, नकटों की। न ज्ञानी की, न मानी, न ही भगतों की। ये दुनिया है, नकटों की